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________________ श्लोक-वितिक नन्वाभरणादिपुद्गलानां सुखाधु पग्रहे वृत्तिदर्शनात्तेषां सुखाधु पग्रह उपकारोस्त्विति चेन्न, तेषामननुमेयत्वात् नियमाभावाच्च कम्यचिकदाचिन्तसुखोपग्रहे वर्तमानस्यापि बंधना देरपरस्य दुःखाद्य पग्रहेपि वृत्यविरोधान्न नियमः ।सद्वेद्यादिकर्माणि सुखाद्युपग्रहे प्रतिनियतस्व- भावान्येवान्यथा तत्संभावनानुपपत्तेरिति तेभ्यस्तदनुमानम् । - - ___पुनः किसीका प्रश्न है कि केवल अतीन्द्रिय कर्मोको ही सुख आदिका अनुग्राहक क्यों मानाजाता है . जब कि आभरण (भूषण) वस्त्र, गृह, रसायन, घड़ी, चश्मा, वाहन, वायुयान, मोटरकार, रेलगाड़ी, . अस्त्र, शस्त्र, विष, विद्युत् प्रादि पुद्गलों की भी जीव के लिये सुख आदि अनग्रह करने में प्रवृत्ति होरही देखी जा रही है अतः उन भूषण आदिकों का भी सुख प्रादि अनुग्रह करने में उप कार होजाओ । ग्रन्थ. कार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि वे भूषण, विष, आदि तो अनुमान कर लेने योग्य नहीं हैं बालक, बालिकाओं, तक को भूषण आदिका सुख आदि के अनुग्राहकपने करके प्रत्यक्ष होरहा है, शास्त्र में अनुमान करने योग्य या आगमगम्य पदार्थों का परिज्ञान कराया जाता है अत: इन्द्रिय ग्राह्य पौलिक . कार्य पदार्थों करके अनुमान कर लेने योग्य अतीन्द्रिय सूक्ष्म कारण-प्रात्मक पुद्गलों के निरूपण अवसर . में प्रत्यक्षसिद्ध पुद्गलों के कहने का प्रकरण नहीं है। दूसरी बात यह है कि आभरण आदि करके सुख आदि होने का कोई अन्वयव्यतिरेक पूर्वक नियम नहीं है किसी किसीको कभी कभी सुख अनुग्रह करनेमें वर्तरहे भी बन्धन प्रादिकी दूसरोंके सुख आदि अनुग्रहमें भी प्रवृत्ति होनेका कोई विरोध नहीं है। यानो "पित्तलाभरणवित्तलाभतस्तुष्टिमावहति पामरी नरी । नहि स्वर्णमंरिणभूषितं पुनर्भारमावहति सा नपाङ्गना"। गहने, कपड़े,, सुख के उत्पादक होते हये भी लूट या डांके के प्रकरण पर दुख के उत्पादक होजाते हैं, बैल गाड़ियों से उतनी दुर्घटनायें नहीं होती हैं जितनी कि मोटरकार रेलगाड़ी आदि से होती हैं। घी या तेल के दोपक से आंखों को लाभ ही है, बिजलीके उजालेसे प्रांखोंको विशेष क्षति होती है, अतः आभरण आदि का सुखादि अनुग्रह करने में नियम नहीं है । हां सातावेदनीय आदि कर्म तो सुख, दुःख आदि अनुग्रह करने में प्रति नियत स्वभाववाले ही हैं अन्यथा यानी अतीन्द्रिय कर्मोंके विना उन सख आदि अन ग्रहों के होने की सम्भावना नहीं सिद्ध होती है इस कारण अविनाभावी उन सुख आदिकों से उन सातावेदनीय आदि सूक्ष्म पुद्गल... का अनमान होजाता है । अलं पल्लवितेन । धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल इन चार अजीव द्रव्यों का उपकार ज्ञात कर लिया अब जीवों करके होने वाले उपकार को सूत्रकार अगले सूत्र में कहते हैं । परस्परोपग्रहो जीवानाम् ॥२१॥ .... परस्पर के ( में ) अनुग्रह करना जीवों का उपकार है अर्थात्- शिष्य का उपकार उपदेश प्र दान द्वारा गुरू करता है और गुरूक अनुकूल प्रवर्तन, पांव दावना, नमस्कार करना, गुण कीर्तन, इष्टवस्तु समर्पण आदि करके शिष्य, गुरू का उपकार करता है, राजा प्रजा, या पिता पुत्र, आदि में भी इसी प्रकार परस्पर अनुग्रह किया जाना समझलिया जाय । उपकार इत्यनुवर्वते, ततः परस्परं जीवानामनुमानमित्याह ।
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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