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________________ श्लोक-वातिक यह अहतवादियों का कहना युक्ति रहित है क्योंकि बौद्धों के संवेदनाद्व तवाद के समान पुरुषाढत वाद का पूर्व प्रकरणों में ही निराकरण किया जा चुका है । शुभ अशुभ कर्म, विद्या अविद्या, संवृत्ति परमार्थ, रोगी नीरोग, बद्धमुक्त, ये सब द्वैतवाद में ही सध पाते हैं, अतः सूत्रकार का “जीवानां" यह बहुवचन पद और "परस्पर में एक दूसरे का उपग्रह" ये दोनों पद अतीव उपयोगी समझे गये है यहां तक पाँचवें द्रव्य-जीवों का उपकार कह दिया है। अब सूत्रकार महाराज के प्रति किसी का प्रश्न है कि उपकारों द्वारा सत् पदार्थोके अनुमान कराने के अवसर पर सद्भूत छठे काल द्रव्य के उपकार का कथन करना भी आवश्यक है ऐसे जिज्ञासु के उत्तर-स्वरूप अग्रिम सूत्र को श्री उमास्वामी महाराज कहते हैंवर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य ॥ २२॥ वर्तना, परिणाम,क्रिया परत्व और अपरत्व ये काल द्रव्यके उपकार हैं । अर्थात्-निश्चय काल करके छहों द्रव्यों की वर्त्तना होती है । और व्यवहार काल करके अपरिस्पन्दात्मक परिणाम या परिस्पन्द-प्रात्मक क्रिया और कालकृत छोटापन, बड़ापन, ये अनुग्रह होते रहते हैं। वय॑ते वर्तनमात्रं वा वर्तना, वृत्तय॑न्तात्कर्मणि भावे वा युक् तस्गनुदारोत्त्वात्ताच्छीलिको वा युच् वर्तनशीला वर्तनेति । प्रत्येक पदार्थ में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यों, करके प्रति समय जो वर्ताई जाती है, वह वर्तना है । अथवा नवीन से कुछ जीणं होना स्वरूप वर्तन मात्र ही वर्तना मानी गयी है। पदार्थाः वर्तन्ते, कालः प्रेरयति, इति कालः पदार्थान् वत्र्तयति, वर्तयिता-हेतुः कालः, वय॑न्ते पदार्था: कालेन । अथवा वय॑ते इति भाव मात्र। यहां यदि " करणाधिकरणयोश्च" इस सूत्र करके वर्तते अनया या वर्तते अस्यां यों विग्रह कर वृतु धातु से करण अथवा प्रधिकरण में युट प्रत्यय किया जाता तो टकार इत् होने मे स्त्रीलिंग की विवक्षा मे डी प्रत्यय प्राप्त होता, वर्तना पद ठीक नहीं बन सकता था अतः वर्तना शब्द को यों बना लिया जाय कि " वृतु वर्तने " धातु से रिण प्रत्यय कर पुनः ण्यन्त वृतु धातु से कर्म अथवा भाव में युच् प्रत्यय कर लिया जाता है। यु को अन करते हुये स्त्रीलिंग की विवक्षा होने पर प्राट प्रत्यय कर वर्तना शब्द बना लिया जाता है। अथवा वृतु धातु का अनुदात्त इत् संज्ञक-पना है, तभी तो यह आत्मनेपदी है। अनुदात्त इन होने से “ अनुदात्ते तश्च हलादे :" सूत्र करके तच्छील अर्थ में प्रयुक्त किया गया युच प्रत्यय कर लिया जाय वर्तन स्वभाव रूप पदार्थ ही वर्तना है। यों तत शीलं यस्याः इस प्रकार ताच्छीलिक युच् प्रत्यय होजाता है, वर्तनशील ही वर्तना है । इस प्रकार वत्तना शब्द की निरुक्ति द्वारा यथायोग्य अर्थ निकाला जा सकता है। का पुनरियं १ प्रतिद्रव्यपर्यायमंतीतैकसमया स्वसत्तानुभूतिर्वर्तना । द्रव्य वक्ष्यमाणं तस्य पर्यायो द्रव्यपर्यायः द्रव्यपर्यायं द्रव्यपर्यायं प्रति प्रतिद्रव्यपर्यायं अन्तर्नीत एकः समयोनपेत्यंत तैकसमया । का पुनरसौ ? स्वसत्तानुभूतिः स्वस्यैव स्वत्ता स्वसत्ता अन्यासाधारणी जन्मव्ययध्रौव्यैक्यवृत्तिरित्यर्थः । 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' इति वचनात् । न हि सत्तात्यंत भिमा स्वाश्रयानुपपद्यते । बुद्धयभिधानानुप्रवृत्तिलिंगेनानुमीयमाना सैकैवेत्ययुक्तं, सादृश्योपचारात
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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