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श्लोक-वातिक
पूर्व सत्र से उपकार इस शब्द की अनवृत्ति कर ली जाती है तदनसार अवगाह देना अाकाशे का उपकार है यह अर्थ घाटित होजाता है । यहाँ कोई पूछता है कि यह अवगाह भला क्या पदार्थ है ? इसका उत्तर यों है कि अवगाहन क्रियाको ही यहां अवगाह लिया गया है अव उपसर्गपूर्वक" गाह विलोडने,, धातु से भावमें घन प्रत्यय कर अवगाह शब्द बना लियागया है और वह अवगाह यानी अनुप्रवेश तो कर्म में स्थित होरहा नहीं है क्योंकि कर्म में स्थित होरहे उस अवगाह की सिद्धि नहीं है. अतः उस कर्मस्थ अवगाहको आकाश द्रव्यका ज्ञापक लिंगपना नहीं बन सकता है । अर्थात्' जलं अवगाहते मत्स्यः मछली जल को अवगाह करा रही है, इस प्रकार "जीवादयः आकाशं अवगाहन्ते,. जीव प्रादिक पदार्थ आकाश को अवगाह रहे हैं ऐसा कर्ता होरहे जीव आदिकोंमें अवगाह क्रिया ठहर जाती है किन्तु कर्म होरहे आकाशमें क्रिया नहीं ठहरती है, भलेही निश्चयनय अनुसार आकाश स्वयं ठहर जाय किन्तु भेद पक्ष की षट्कारकी अनुसार वह सिद्धान्त गौरण पड़ जाता है। जबतक आकाश ही सिद्ध नहीं है तो उस आकाश कर्म में अवकाश क्रिया तो सुतरां प्रसिद्ध होगी। ऐसी दशा में वह अवगाह प्राक ज्ञापक हेतु नहीं होसकता है फिर वह अवगाह कैसा माना जाय ? ऐसा आक्षेप होने पर ग्रन्थकार उत्तर देते हैं कि कर्ताओं में ठहररहा अवगाह प्रसिद्ध है वह आकाश का ज्ञापक हेतु भी होसकता है इस बात को ग्रन्थकार अगली वार्तिकद्वारा स्पष्ट कहते हैं।
उपकारोवगाह : स्यात् सर्वेषामवगाहिनां।
आकाशस्य सकृन्नान्यस्येत्येतदनुमीयते ॥१॥ ___ अवगाह करने वाले जीव आदि सम्पूर्ण द्रव्यों को एक ही वार में अवगाह दे देना यह आकाश का ही उपकार हो सकता है, अन्य किसी द्रव्य का नहीं । यह उक्त सूत्र अनुसार अनुमान कर लिया जाता है । अर्थात्-"सकृत्, और 'सर्वेषां,, पदों का उपस्कार कर हेतु कोटि में डालते हुये विज्ञपुरुष द्वारा आकाश को जानने के लिये अनुमानप्रमाण बना लिया जाता है।
जीवादयो बवगाहकास्तत्र प्रतातितिद्धत्वाल्लिगमवगाह्यस्य कस्यचित् यत्तदवगाय सकृत्सर्वार्थानां तदाकारामिति क स्थादवगाहादनुमीयते । गगनादन्यस्य तथाभावानुपपत्तेः।
जब कि जीव आदिक पदार्थ वहां आकाश में अवगाह कर रहे समीचीन प्रतीतियों से सिद्ध हैं इस कारण किसी न किसी अवगाह करने योग्य द्रव्य के वे ज्ञापक लिंग होसकते हैं। एक ही वार में सम्पूर्ण पदार्थों का जोभी कोई वह अवगाह करने योग्य पदार्थ है वह आकाश है इस प्रकार कर्ता में स्थित होरहे अवगाहसे आकाशका अनुमान करलिया जाता है । आकाशके अतिरिक्त अन्य किसी पदार्थ के तिसप्रकार युगपत् सम्पूर्ण अर्थों को अवगाह देना नहीं बन सकता है। अतः " जीवादयः आकाश अवगाहन्ते,, इस प्रतीति अनुसार यों अनुमान बना लिया जाता है कि सकृत् सर्वपदार्थावगाहोपग्रहः (पक्ष) सर्वलोकालोकव्यापिद्रव्योपकृतः (साध्यदल) सकृत्सर्वपदार्थावगाहान्यथानुपपत्तेः (हेतु) यः साध्यवान् न स हेतुवान् यथा कूटस्थलोहो बज्र वा (व्यतिरेकदृष्टान्त)।
... आलोकतमसोरवगाहः सर्वेषामव गाहकानां जलादेर्भस्मादिव दिति चेन्न, तयोरप्यवगाहकस्वादवगाह्यांतरसिद्धेः