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पंचम अध्याय
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श्रनन्तरूप से परिज्ञात कर रहे हैं। भला ये भी कोई बलात्कार शोभता है कि अनादि को जानते हुये वे उसकी आदिको जान बैठें या अनन्तको जानते हुए उसका अन्त कर बैठें। यों जानना तो एक प्रकार का मिथ्याज्ञान होगा जो कि सम्यग्ज्ञानी सर्वज्ञके असम्भव है । विकास सिद्धान्त को मानने वाले भावों को अनादि अनन्त अवश्य मान लेंगे। मुर्गी श्रण्डा या बीजवृक्ष का अनादित्व निःसंशय प्रसिद्ध है, वैसा ही क्षेत्र, काल, द्रव्यों में भी अनन्तपना सयुक्त है । परिशेष में यह कहना है कि असंख्यात या अनन्ते पदार्थ भी अवधिसहित हैं। मर्यादित लोक में ही जीव आदि पांच द्रव्य निवास करते हैं ।
यदि पुनर्लोकंकदेरावर्तिद्रव्योपकृतौ सकलार्थ - गतिस्थिस्युपग्रहौ स्यातां तदापि लोका लाकविभागासिद्धिः काचिद्र तमानयोर्धर्मास्तिकाययोः सर्वलोकाकाशे इवालोकाकाशेपि सर्वार्थगतिस्थित्युपग्रहोपकारित्वप्रसक्तेस्तस्य लोकत्वापतेः । ततः सर्वगताभ्यामेव द्रव्याभ्यां सकलार्थ गतिस्थित्यनुग्रहोपकारिभ्यां भवितव्यं तौ नो धर्माध ।
फिर शंकाकार के विचार अनुसार सम्पूर्ण अर्थोके गति उपग्रह और स्थिति-उपग्रह यदि लोक के एक देश में वर्त रहे द्रव्यों करके उपकार प्राप्त किये जाते होते तो भी लोक और प्रलोक के विभाग को सिद्धि नहीं हो पाती क्योंकि लोक में कहीं वर्त रहे धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकायों को जैसे अतिरिक्त स्थान या पम्पूर्ण लोकाकाश में अथवा वहां विद्यमान पदार्थों के गति - उपग्रह और स्थिति-उपग्रह का उपकारकपना स्वीकार किया जाता है उसी प्रकार लोकाकाश के किसी कौने में धरे हुए धर्म, अधर्म करके लोकाकाशमें भी सम्पूर्ण थके गति-उपग्रह और स्थिति अनुग्रहके उपकारकपनका प्रसंग आजायगा और ऐसा होने से उस अलोकाकाश को भी लोकपन की आपत्ति प्रजायगी जो कि श्रलोक का लोकना किसीको भी इष्ट नहीं है, तिस कारण लोक में सर्वत्र व्यापक होरहे ही धर्म, अधर्म, द्रव्यों को सम्पूर्ण अर्थों की गति और स्थिति स्वरूप अनुग्रह करने में उपकारी होना चाहिये यानी - लोकमें सर्वगत हो रहीं द्रव्यं ही सम्पूर्ण अर्थों की गति और स्थिति के अनुग्रह करने में उपकारी होसकती हैं । श्रव्यापक द्रव्यें उक्त कार्यको नहीं निभा सकेंगी वस वही लोक में सर्वगत होरहीं द्रव्यें हम स्याद्वाद - सिद्धान्तियों के यहां धर्म और अधर्म इस नाम से प्रख्यात हैं ।
अग्रिम सूत्र का अवतरण यों समझिये कि कोई जिज्ञासा करता है कि परोक्ष होरहे प्रतीन्द्रिय धर्म और अधर्म द्रव्य का अस्तित्व यदि उपकार के सम्वन्ध करके नियत किया जाता है तो उनके श्रव्यवहित उत्तर कहे गये अत्यन्त परोक्ष प्रकाश का अधिगम करने में भला क्या उपाय है ? जिसप्रकार का कि अवलम्बकर अतीन्द्रिय आकाशकी आधुनिक पण्डितोंको ज्ञप्ति होजाय आकाश तो सूक्ष्मातिसूक्ष्म परमाणु से भी अत्यधिक अत्यन्त परोक्ष है ऐसी अभिलाषा प्रवर्तने पर सूत्र -कार महाराज अग्रिम सूत्र को कहते हैं ।
आकाशस्यावगाहः ॥२८॥
अवगाह करने वाले जीव, पुद्गलादि सम्पूर्ण द्रव्यों को अवकाश देना यह श्राकाश का उपकार है । उपकार इत्यनुवर्तते । कः पुनरवगाह : अवगाहनमवगाहः स च न कर्मस्थस्तस्यासिद्धत्वारिलगत्वायोगात् । किं तर्हि ? कतु स्थ इत्याह ।
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