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________________ पंचम-अध्याय यहाँ अत्यन्त परोक्ष आकाश को नहीं मान रहा कोई लौकिक पण्डित प्राक्षेप करता है कि दिन में पालोक और रात्रि में अन्धकार इन दोनों में सम्पूर्ण अवगाह करने वाले जीवादि पदार्थों का अवगाह हो जायगा जैसे कि किसी पात्रमें ठूस कर भर दी गयी राख में पुनः जल क अवगाह होजाता है या पानी, ऊंटनी के दूध, आदि में जिस प्रकार वूरा ,मधु प्रादि का अवगाह होजाता है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि वे पालोक और अन्धकार भी कहीं न कहीं अवगाह करने वाले पदार्थ हैं यदि जीव आदिकों का आलोक और अन्धकारमें अवकाश प्राप्त करना माना जायगा तो पुनः उन आलोक और अन्धकारके लिये भी अवगाह करने योग्य किसी अन्य अधिकरणको सिद्धि माननी पड़ेगी इससे यही अच्छा है कि प्रथम से ही सवका अवगाह्य पदार्थ एक मान लिया जाय। भावार्थ-मन्द अन्धकार में गाढ अन्धकार प्रविष्ट होजाता है और गाढ अन्धकार में प्रति निविड अन्धकार समा जाता है इसीप्रकार दोपक के प्रकाश में दूसरे, तीसरे, आदि दीपकों के प्रकाश प्रविष्ट होजाते हैं सूर्य के तेजस्वी आलोक में भी विजली या टौर्च का प्रकाश प्रविष्ट होही जाता है खिडकी खोलते ही आलोक भी पोल रूप घरोंमें घुस आता है यों पालोक या अन्धकार भी कहीं न कहीं अवगाह पाने के लिये लालायित रहते हैं प्रतः परिशेष में जाकर सब का अवगाह करने योग्य आकाश ही ठहरता है यद्यपि भस्म में जल, पानी में बूरा, काठ में कील, चर्म में तेल, रोटी में घी इत्यादि" आधार प्राधेय भाव लोक-प्रसिद्ध हैं । व्यवहार नय से ये सब सन्य भी हैं किन्तु सूक्ष्म दृष्टि से विचारने पर यही निर्णीत होगा कि भींतमें बैठा हुआ आकाश ही कील को स्थान देरहा है । भस्म स्वयं आकाश में है, भस्म में आकाश प्रोत प्रोत ठस रहा है वह आकाश ही जल को अवकाश दे देता है अतः "पाकाशस्यावगाहः,, इसका अर्थ "अवगाह देना आकाश का ही उपकार है" यों कर दिया जाय तो अनुचित नहीं है। नन्वेमाकाशस्याप्यवगाहकत्वादन्यदवगाह्यं कल्प्यतां तस्याप्यवगाहकत्वे अपरमवगाह्यमित्यनवस्था स्यादिति चेन्न, आकाशस्यानंतस्यामृतस्य व्यापिनः स्वावगाहित्वसिद्धेरवगाद्यांतरासंभवात् । न चैवमालोकतमसोः सर्वार्थानां वा स्वावगाहित्वप्रसक्तिरर्सवगतत्वात् । न च किंचिदसर्वगतं स्वावगाहि दृष्ट, मत्स्यादेर्जलाधवगाहित्वदर्शनात् । यहां कोई शंका उठाता है कि इस प्रकार तो जीब आदि के समान आकाश भी अवगाहक है अतः आकाश को अवगाह देने के योग्य किसी अन्य पदार्थ की कल्पना कर ली जाय और उस दूसरे अवगाह्य का भी अवगाहकपना मानते सन्ते तीसरे, चौथे, आदि अवगाह्य पदार्थों की कल्पना करते करते यों अनवस्था होजायगी। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि आकाश पदार्थ सब से बड़ा अनन्तानन्त-प्रदेशी है. अमूर्त है, व्यापक है। इस कारण दूसरों को अवगाह देनेवाला होते हये आकाश में स्वयं को भी अवगाह देनापन सिद्ध है। इस कारण उस आकाश के लिये स्वातिरिक्त अन्य अवगाह्य पदार्थ का असम्भव है। किन्तु इस प्रकार आलोक और अन्धकार को तो सम्पूर्ण अर्थों का भी अवगाहीपना प्रसंगप्राप्त नहीं होता है । कारणाक वे प्रसवगत द्रव्य अपना और सम्पूर्ण द्रव्यों का अवगाह्य नहीं होसकता है। कोई भी अव्यापक पदार्थ स्वयं अपना अपने में अवगाह्य करने वाला नहीं देखा गया है। मछली, सुई आदि का जल, पत्ता आदि में अवगाहकपना देखा जाता है। भले ही जल आदिको मछली आदि का अवगाह्य कह दिया जाय या निश्चयनय अनुसार सम्पूर्ण पदार्थों
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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