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श्लोक-वार्तिक
ऊंचाई चौदह राजू है । और दक्षिण उत्तर लम्बाई सर्वत्र सात राजू है, अतः दक्षिण या उत्तर किसी भी एक मोर अलोकाकाशके प्रदेश ऊचाई या निचाई से साढ़े तीन राजू अधिक फैल रहे माने जांयगे। इसी प्रकार मध्य लोक में एक राजू चौड़े लोकाकाश से पूर्व या पश्चिम राजू के अलोकाकाश के प्रदेश तो दक्षिण उत्तर की अपेक्षा तीन तीन राजू अधिक विस्तृत हैं। और ऊपर नीचे की अपेक्षा साड़े छह छह राजू अतिरिक्त हैं, यों विवेचन करने पर श्रुतज्ञान द्वारा प्रलोकाकाश की व्यंजन पर्याय मर्यादासहित प्रतीत होजाती है । सर्वज्ञ भगवान तो अनन्तानन्त राजू लम्बे, चौड़े, ऊंचे मर्यादा वाले अलोका. काश को स्पष्ट देख रहे हैं। जैसे कोई साधारण मनुष्य पचास गज लम्बे, चौड़े, चौकोर प्रासाद को देख रहा है।
उस मर्यादित अलोकाकाशके बाहर कुछ नहीं है। भैस के शिरपर लम्बे काठिन्यगुणयुक्त सींग विद्यमान हैं । अत: बैल या भैंस के शिर पर हाथ फेरने वाले को ऊपर सींगों का परिज्ञान होजाता है, किन्तु घोड़ा या गर्दभके शिर पर हाथ फेरने वालोंको ऊपर कुछ भी नहीं प्रतीत होता है। इसी प्रकार अलोकाकाश के बाहर न कोई पोल है, न कोई जीवद्रव्य है, और न पुद्गलादि द्रव्य हैं, खर-विषारण के समान वहां कुछ भी तो नहीं है। प्रकरण में यह कहना है कि लोक या अलोक को मर्यादारहित मानने पर प्राकृति-सहितपन का विरोध होगा, इस कथन में ग्रन्थकार को कुछ अम्वरस है। अतः प्रमाणोंका प्रभाव, यह दूसरी युक्ति दी गयी है । वस्तुतः विचाराजाय तो आकाश, काल, जीव केवलज्ञान, ये सभी मर्यादासहित हैं। अतः इनकी आकृति यानी-व्यंजन पर्याय अवश्य है, जो केवलज्ञानी आत्माकी व्यंजन पर्याय है वही केवलज्ञान का संस्थान है। अतः कोई अस्वरस नहीं है, इकईसवीं उत्कृष्.. अनन्तानन्त संख्याके अनुसार केवलज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेदों की मर्यादा परिगणित है। उत्कृष्ट अनन्तानन्त में भी दस वीस संख्या को मिलाकर इस संख्या को बढ़ाया जा सकता है। किन्तु क्या करें उस संख्याद्वारा संख्या करने योग्य कोई वस्तुभूत पदार्थ ही नहीं हैं, संख्ये यों में नहीं घटित होने वाली कोरी संख्याओं को जैनसिद्धान्त में व्यर्थ गिनाया नहीं गया है। ऐसी अपार्थक, निस्सार बातों को कहने या सुनने के लिये किसी के पास अवसर नहीं है।
तभी तो घनधारा में " पासण्णघणा मूलं" और द्विरूप घनधारा में " चरिमस्स दुचरिमस्स पणेव घरण केवलम्वदिक्कमदो । तम्हा विरू वहीणा सगवग्गसला हवे ठाणं ।" तथा द्विरूप घनाघन धाग में “ चरमादिचउक्कस्स य घणाघणा एत्यणेव संभवदि । हेदूभणिदो तम्हा ठाणं चउहीण वग्गसला" श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीको कहना पड़ा है। भले ही बहुत सी मध्यवर्ती संख्याओंके संख्येय पदार्थ जगत में नहीं हैं, फिर भी उनसे अधिक या न्यून के अधिकारी भावों के विद्यमान होने से ठीक ठीक गणित बनाने के लिये मध्यम प्रस्वामिक संख्याओं का निरूपण करना भी अनिवार्य पड़ जाता है । पुद्गल परमाणु एक समय में चौदह राजू गमन कर सकती है, तदनुसार बीच २ के अनेक स्थानों पर परमाणु के पहुंचने पर समय से भी छोटा काल नापा जा सकता था किन्तु कोई भी पूरा कार्य प्राधे समय या चौथाई समय अथवा समय के किसी अन्य छोटे भाग में न हुआ, न होरहा है, न होगा, अतः काल की सब से छोटी मर्यादा "समय" बांध दी गयी है। इसी प्रकार बड़ा स्कन्ध बनने के लिये जब पुद्गल परमाणुओं के एक एक भाग में दूसरी दूसरी परमाणुयें अपने अपने भाग से चिपटती हैं । या बंधती हैं तदनुसार परमाणु से भी छोटा टुकड़ा कल्पित किया जा सकता है। किन्तु हम क्या करें तीनों कास में पुद्गल परमाणु से छोटा टुकड़ा प्रखण्ड पर्याय रूप से न हुआ, न है, न होगा, अतः परमाणु