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________________ पंचम - अध्याय पाये जाते हैं उतना मध्यवर्ती तीनसौ तेतालीस घन - राजू प्रमाण लोकाकाश है, शेष अनन्तानन्त रज्जु लम्बा, चौड़ा, मोटा, प्रलोकाकाश है, लोक को पूर्व प्रकरणों में मर्यादा - सहित साधा जाचुका है यदि लोक को मर्यादा -रहित माना जायगा तो विशेष श्राकार से सहितपन का विरोध होजावेगा तथा लोक को मर्यादा -रहित साधने वाले प्रमाणों का भी प्रभाव है । १४१ भावार्थ - प्रलोकाकाश के सब ओर से ठीक बीच में यह लोक अनादि काल से विरचित है, जोकि चौदह राजू ऊंचा और दक्षिण उत्तर सात राजू लम्बा है। हां लोककी पूर्व पश्चिम में नीचे सात राजू उसके ऊपर सात राजू तक क्रमसे घटकर एक राजू और वहांसे क्रमसे बढ़ कर साढ़े दस राजू तक पांच राजू तथा पुनः क्रम से घट कर चौदह राजू की ऊंचाई तक एकराजू चौड़ाई है। लोक के छहों और वातवलय हैं, इस प्रकार पांव फैलाकर और कमर पर हाथ रख खड़े हुये पुरुष के समान लोक की प्रकृति है, जो कि उक्त प्रमाण अनुसार छहों ओर मर्यादा सहित है। इस लोक की मर्यादाको धर्म द्रव्य और अधर्म ने ही व्यवस्थित किया है । अन्यथा सर्वत्र जीव और पुद्गलों की अव्याहत गति या स्थिति होजाने से लोक और प्रलोक का कोई विभाग नहीं होसकेगा। एक बात यहाँ यह भी विचारने की है, कि सम्पूर्ण आकाश द्रव्य अनन्तानन्त- प्रदेशी है अनन्त का अर्थ कोई पण्डित मर्यादा रहित . होरहा करते हैं, सम्भव है इसी प्रकार असंख्यात का अर्थ संख्या से अतिक्रान्त होरहा करते होंय किन्तु अर्थ करना स्थूल दृष्टि से भले ही थोड़ी देर के लिये मान्य कर लिया जाय परन्तु सिद्धान्त दृष्टिसे उक्त दोनों अर्थ अनुचित हैं । असंख्यात की भी संख्या की जासकती है, और ग्रनन्तानन्त भी सर्वज्ञ ज्ञान द्वारा गिने जा चुके मर्यादित हैं जब कि उत्कृष्ट संख्यात को गिना जा सकता है । तो उससे एक अधिक जघन्य परीतासंख्यात को क्यों नहीं गिना जा सकेगा ? इसी प्रकार जब श्रसंख्याता संख्यात की मर्यादा बांधी जाती है, तो उससे एक अधिक परीतानन्त की मर्यादा करने में कौन सी बुद्धि की नोंक घिस जायगी ? संख्यामान के ही तो इकईस भेद जो कि संख्यात, परीतासंख्यात, युक्तासंख्य. त, संख्याता संख्यात, परीतानंत युक्तानन्त, अनन्तानन्त के जघन्य मध्यम, उत्कृष्ट भेद अनुसार हैं । संख्यामान के ग्यारहवें भेद होरहे मध्यम असंख्यातासंख्यात नामक गणना के किसी अवान्तर भेद में लोकाकाश के प्रदेश परिगणित हैं तथा वीसवीं संख्या मध्य- अनन्तानन्त के किसी भेद में अलोकाकाश या सम्पूर्ण आकाश के प्रदेश गिन लिये गये हैं " पल्लघरणंविदंगुल जगसेढी लोय पदर जीवघरण । तत्तो पढमं मूलं सव्वागासं च जा जाणेज्जो " यों त्रिलोकसार में सर्वाकाश के प्रदेश गिना दिये हैं । साधारण पुरुष जिसप्रकार दश, वीस, पचास रुपयों को गिन लेता है, इससे भी कहीं अधिक स्पष्ट रूपसे केवलज्ञानी महाराज अलोकाकाश के प्रदेशोंको झटिति गिन लेते हैं । वरफी के समान समघन चतुरस्र अलोकाकाश की छहों दिशाओं में मर्यादा है । लोक के ठीक बीच सुदर्शनमेरु की बीच जड़ में पड़े हुये आठ प्रदेशों से यदि अलोकाकाश को नापा जायगा तो पूर्व, पश्चिम, उत्तर दक्षिण, ऊर्ध्व, अधः, छहों प्रोर डोरी ठीक नाप की पड़ जायगी । हां चौकोर पदार्थ के बीच से तिरछे नापे गये कौने तो बढ़ ही जांयगे यदि केवल अलोकाकाश के ही छहों दिशा की ओर प्रदेश गिनने होंय तो लोकाकाश के नीचे या ऊपर के प्रदेशों से दक्षिण या उत्तर दिशा-सम्बन्धी प्रदेश तो साढ़े तीन, साढ़े तीन राजू बढ़ जायंगे कारण कि लोक की
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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