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________________ १४० इलोव -वातिक यदि यहाँ कोई प्रतिवादी यों कहै कि प्रकृत हेतु का साध्य के साथ अविनाभाव नहीं है उम धर्म, अधर्म द्रव्यों के विना ही परस्पर करके सम्पूर्ण अर्थों के वे गतिमनुग्रह स्थिति-अनुग्रह सम्भव जाते हैं, घोड़ा सवार को चला रहा है, सवार घोड़े को चला रहा है, पर घोड़ा सवार को ठहरा लेता है और सवार घोड़ेको ठहरा लेता है । पथिक को छाया ठहरा लेती है, वायु तृणोंको उड़ादेती है मूढ़ा या कुर्सी मनुष्य को बैठाये रखता है । ठहरा हुप्रा लाल सिगनल या नहीं झुका हुआ सिगनल रेलगाड़ी को ठहरा लेता है और हरा या झुका हुआ सिगनल रेलगाड़ीकी गति होजाने में अनुग्राहक है तथा गमन कर रही वायु परदे वाली नावकी गतिको करादेती है और निषेधके लिये हिलाया गया हाथ आगन्तुक को ठहरा देता है, यों गमन करने वाले पदार्थ दूसरोंकी स्थिति कराने में अथवा स्थिति वाले पदार्थ दूसरोंके गमन कराने में सहायक होरहे हैं, इत्यादिक अनेक पदार्थ परस्पर गमन और स्थितिको करा रहे हैं इसके लिये धर्म और अधर्म द्रव्य कुछ भी उपयोगी नहीं। यों कहने पर तो आचार्य विकल्प उठाते हैं कि इस अवसर पर युगपत् गमन कर रहे सम्पूर्ण पदार्थों के गतिअनुग्रह में कारण क्या सम्पूर्ण ठहर रहे पदार्थ हैं ? और एक साथ ठहर रहे सम्पूर्ण पदार्थों के स्थिति-अनुग्रहमें कारण क्या सभी गमन कर रहे पदार्थ हैं ? अथवा क्या कुछ थोड़े से पदार्थ ही कुछ अन्य थोड़े से पदार्थों के गति-अनुग्रह या स्थिति-अनुग्रह करने में कारण माने गये हैं ? बतायो पहिला पक्ष ग्रहण करना तो ठीक नहीं पड़ेगा क्यों कि अन्योन्याश्रय दोष होजाने का प्रसंग पाता है गमन करने वाले पदार्थों के कारण ठहरने वाले होंय और ठहरने वालोंके कारण गमन करने वाले पदाथं होंय,यह अन्योन्याश्रय स्पष्ट है । सम्पूर्ण पदार्थ तब गमन कर सकें जबकि सभी पदार्थ ठहरे हरे होय और सभी पदार्थ ठहरें कब, जब कि सभी पदार्थ गमन करें, यह असम्भव-गर्भित परस्पराश्रय दोष है तथा दूसरा पक्ष ग्रहण करना भी श्रेष्ठ नहीं है क्योंकि सम्पूर्ण अर्थों के गति-उपग्रह और स्थिति-उपग्रह को सस्पूर्ण लोक में व्याप रहे द्रव्य द्वारा उपकृतपने करके साध्य किया गया है प्रतिनियत हुये कतियय पर्थों के कभी कभी होने वाले प्रत्येक विशिष्ट होरहे गति-अनुग्रह और स्थिति-अनुग्रह का पृथवी आदि द्रव्यों द्वारा उपकृतपना हम जैन स्वीकार कर चुके हैं, अतः कतिपय द्रव्य किन्हीं परिमित द्रव्यों के अनुग्राहक हैं, यह दूसरा पक्ष लेना उचित नहीं है। गगनोपकृतत्वात् सिद्ध साधनमिति चेन्न, लोकालोकविभागाभावप्रसंगाल्लोकम्य सावधित्वसाधनात् निरवधित्वे संस्थानवत्वविरोधात प्रमाणाभावाच्च । यहां कोई प्राक्षेप करता है कि जैनों द्वारा दिये गये अनुमान में सिद्धसाधन दोष है। क्योंकि सर्वत्र लोकालोक में व्याप रहे आकाश द्रव्य करके उपकृत होरहे गत्युपग्रह और स्थित्युपग्रह सिद्ध ही हैं। इस क्लप्त होरहे आकाश के द्वारा साधने योग्य कार्य के लिये नवीन धर्म अधर्म द्रव्योंकी कल्पना करना ठीक नहीं है, अाकाश करके अवगाह और गति-अनुग्रह, स्थिति--अनुग्रह ये कार्य निपटा दिये जायंगे- अतः आप जैन भाई सिद्ध पदार्थ प्रकाश का ही साधन कर रहे हैं । ग्रन्थकार कहते हैं. कि यह तो नहीं कहना क्योंकि यों आकाश के मानने पर और धर्म, अधर्म, द्रव्यों के नहीं स्वीकार करने पर तो लोक और प्रलोक के विभाग के प्रभाव का प्रसंग होजावेगा, जहां तक आकाश में धर्म, अधम द्रव्य
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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