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________________ पंचम-अध्याय हो छोटे द्रव्य की अन्तिम मर्यादा है। इन दृष्टान्तों से हमें अलोकाकाश को मर्यादा-सहित कहने में कोई प्रमाणों से वाधा नहीं आती है। तो लोकाकाश को निरवधि कथमपि नहीं कह सकते हो। प्रायः पौराणिक, नैयायिक, मीमांसक, और आधुनिक पण्डित, लोक को सावधि मानते हैं। निरवधि मानने में कोई प्रमाण नहीं है, लौकिक स्थूल गणित से गिनती नहीं होसके एतावता अलौकिक गणित से भी इन आकाश आदि को अमर्यादित कहना अनीति है। जैन सिद्धान्त अनुसार एक एक परमाणु एक एक प्रदेश, एक एक समय और एक एक अविभाग प्रातच्छेद की ठीक ठीक गिनती या मर्यादा होरही है। जीव राशि से पुद्गल राशि अनन्तगुणी अधिक है, मुक्त जीवों को अपेक्षा संसारी जीव अनन्तानन्त गुरणे हैं। सिद्ध राशि भी अनादि है, जीव राशि भी अनादि है फिर भी सिद्धराशिका अनादिपन जीव राशि के अनादित्व से पौने नौ वर्ष छोटा है। नौ महीने गर्भ में ठहर कर पुनः जन्म ले रहा मनुष्य शीघ्रातिशीघ्र आठ वर्ष पश्चात् संयम को ग्रहण करता सन्ता कतिपय अन्तर्मुहूर्तों के पश्चात् सिद्ध-अवस्था को प्राप्त कर सकता है। अतः सिद्ध-राशि के अनादिकाल से जीव-राशि का अनादि काल पौने नौ वर्ष बड़ा है। तथा व्यवहार काल या भूत, भविष्यत्, वर्तमान कालों के समयों से अलोकाकाश के प्रदेश तानन्त गुणे हैं इतने बड़े अलोकाकाश की भी मर्यादा है, लोक के ऊपर नीचे सम्बन्धी अलोकाकाश से दक्षिण उत्तर का अलोकाकाश बड़ा है और लोक के दक्षिण, उत्तर, वाजू के अलोकाकाश से मध्य लोक के इधर उधर पूर्व पश्चिम फैला हुआ अलोकाकाश बढ़ा हुआ है। वृद्ध विद्वानों से सुना है, कि सुदर्शन मेरु के वरावर एक लाख योजन लम्बा, चौड़ा, गोल, लोहे का गोला बनाया जाय वह प्रत्येक समय में एक राजू की गति अनुसार यदि पतन करै तो भी पूर्ण भविष्य काल के अनंन्तानन्त समयों में भी अलोकाकाश के तल तक नहीं पहुंच पायगा इस दृष्टान्त को सुन कर अब निर्णीत दृष्टान्त को यों समझिये कि जम्बू द्वीप के बराबर गढ़ लियागया लोहे का गोला प्रति समय यदि अनन्तराजू भी पतन करै अथवा एक समय में अनन्त राजू चल कर दूसरे समय में उस अनन्त से अनन्तगुणे अनन्तानन्त राजू गमन करै यो तीसरे, चौथे, प्रादि समयों में पूर्व पूर्व से अनन्त गुणा चलता चला जाय फिर भी भविष्य काल के अनन्तानन्त समयों में अलोकाकाश की सड़क को पूरा नहीं कर सकेगा, कारण कि "तिबिह जहम्णाणंतं वग्गसलादल द्विदी सगादि पदं । जीवो पोग्गलकाला सेढी अागास तप्पदरम् ।" इस गाथा अनुार काल समय राशि से अनन्त स्थान ऊपर जाकर आकाश श्रेणी की वगितवार स्वरूप वर्ग शलाकायें मिलती हैं, उनसे अनन्त स्थान ऊपर जाकर आकाशश्रेणी के अर्द्धच्छेद निकलते हैं। उनसे अनन्त स्थान ऊपर श्रेणी आकाश की संख्या आती है, श्रेणी आकाश के घन प्रमाण सम्पूर्ण प्रकाश प्रदेश हैं। ___ यह दृष्टान्त केवल कल्पित है, क्योंकि धर्मद्रव्य के नहीं होने से कोई भी पुद्गल द्रव्य लोक बाहर गमन नहीं कर सकता है, केवल इस दृष्टान्त द्वारा गरिणत मात्र दिखाकर उसकी मर्यादा बता दी गयो है, कि व्यवहार काल से अलोकाकाश इतना बड़ा है। इससे कुछ न्यून या अधिक बड़ा नहीं है। तथैव भूत काल के अनन्तानन्त समयों से भविष्य काल के अनन्तानन्त समय अनन्तानन्त गुणे हैं, इस प्रकार श्री केवलज्ञानी भगवान् महावीर स्वामी ने प्रतिपादन किया है, महावीर स्वामी की दिव्य भाषा के समय से अब तक असंख्याते समयों की वृद्धि भूतकाल में होचुकी है, और भविष्य काल में असंख्यात समयों की हानि होचुकी है, सम्भव है अनन्तानन्त कल्प कालों के पश्चात् कोई सर्वज्ञ भगवान् यों
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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