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पंचम-अध्याय
कदाचित् समवाय सम्बन्ध से रहता है, आत्मा में ज्ञान कभी कभी समवाय से रहता है, सदा वही रूप या ज्ञान नहीं बना रहता है । दण्ड, पुरुष, घोड़ा,मनुष्य, आदिका सहभाव नहीं है, अतः इनका आधार प्राधेय भाव बन जाता है किन्तु जिन पदार्थों का सदा असमवेतपना है, और सहभाव है, उन में आधार आधेय भाव नहीं है जैसेकि बैलके डेरे (बांये) और सीधे दांये सींगमें या साथ धरे हुये अनेक घड़ों आदि में आश्रय प्राश्रयी भाव नहीं है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यहतो नहीं कहना क्योंकि हेतुके अन्यथानुपपत्ति स्वरूप नियम की सिद्धि नहीं है, देखिये' जो पदार्थ जिस अधिकरण में प्राधेय होरहे हैं, वे सभी पदार्थ उस अधिकरण में सर्वदा समवाय सम्बन्ध से वर्तमान होंय और सहभाव रखने वाले नहीं होंय ऐसा कोई नियन नहीं है । आकाश, आत्मा, आदि अधिकरणों में महत्व, संख्या आदि गुण प्राधेय होरहे सर्वदा समवाय सम्बन्ध से वर्तमान हैं, ऐसे सदा समवेतपन की सिद्धि होते हुये भी उन आधार प्राधेयों का सहभाव नहीं होना प्रतीत नहीं होता है, तथा कूडा आदि में वेर अादि प्राधेयों के सहभाव की सिद्धि होते हुए भी कुण्ड, बदर, आदि संयुक्त पदार्थों का सर्वदा समवेतपना अप्रसिद्ध है। इस प्रकार सत्यन्त विशेषण से युक्त होरहे समुदित हेतु की साध्य को व्यावृत्ति होने पर व्यावृत्तिका अभाव होजाने से तुम्हारा हेतु अप्रयोजक है, यानी अनुकूल तर्क नहीं मिलने से अविनाभावका अभाव होजानेके कारण उक्त हेतु साध्य का प्रयोज़क नहीं है, अन्यथानुपपत्ति ही तो हेतु का प्राण है।
तथा आकाश और पुद्गल द्रव्य करके व्यभिचार दोष भी आता है अर्थात्-आकाश और पुद्गल का सदा असमवेपना होते हुए सहभाव है किन्तु प्राधाराधेयभाव का प्रभाव नहीं है, यानी आधार प्राधेय भाव है। प्राकाश में पुद्गल द्रव्य प्राधेय नहीं होय, यह नहीं समझ बैठना क्योंकि उस आकाश की उस पुद्गल के अवगाहकपन करके प्रतीति होरही है, अत: पूद्गल को उस आकाश का प्राधेयपना सिद्ध है जैसे कि नदीजलमें मगर, कछवा, प्रादिक प्राधेय होरहे हैं, अतः व्यभिचार स्थल होरहे आकाश और पुद्गल द्रव्य में साध्य नहीं रहा किन्तु उस आकाशमें उस पुद्गल द्रव्य का सदा असमवेतपना होते सन्ते सहभाव होरहा हेतु तो प्रसिद्ध है, द्रव्य का दूसरे द्रव्य के साथ संयोग सम्बन्ध होसकता है, समवाय नहीं । अतः आकाशमें पुद्गल द्रव्य के सदा समवाय होने का असम्भव है तथा आकाश द्रव्य और पुद्गल द्रव्य के नित्यपन होने के कारण सहभावपना भी है, ऐसी दशा होने पर भी तुम्हारा हेतु विपक्ष मे भी विद्यमान रहता है, अतः उस हेतु का व्यभिचार दोप तदवस्थ ही है।
तयोः पक्षीकरणेत्र पक्षस्य प्रमाणवाधः कालात्ययापदिष्टश्च हेतुः खपुद्गलद्रव्ययोरावाराधेयताप्रतीतेः । पुद्गलपर्याया एव घटादयः खस्याधेयाः प्रतीयंते न च द्रव्यमिति चेन्न, पर्यायेभ्यो द्रव्यस्य कथंचिदव्यतिरेकात् तदाधेयत्वे तस्याप्याधेयत्वसिद्धेः । ततः सूक्तं लोकाका शधर्मादिद्रव्याणामाधाराधेयता व्यवहारनयाश्रया प्रतिपत्तव्या वाधकाभावादिति निश्चयनयान्न तेषामाधाराधेयता युक्ता व्योमवद्धर्मादीनामपि स्वरूपेवस्थानादन्यस्यान्ययत्र स्थिती स्वरूपसंकरप्रसंगात् ।
यदि पूर्व-पक्षी पण्डित यों कहे कि उन आकाश और पुद्गल द्रव्य को पक्षकोटि में कर लिया