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श्लोक-वातिक
न लोकाकाशद्रव्ये धर्मादीनि द्रव्याण्याधेयानि युतसिद्धत्वादनेककालद्रव्यवदिति चेन्न, कुडबदरादिभिरनेकांतात् । साधारणशरीराणामात्मनामपि परस्परमाधाराधेयत्वोपगमा दश्वमनुष्यादीनां दर्शनात् साध्यशून्यमुदाहरणं ।।
यहाँ कोई पण्डित लोकाकाश और धर्मादि द्रव्यों के आधारमाधेयभाव का निराकरण करने के लिये अनुमान बोलता है कि लोकाकाश स्वरूप द्रव्य में धर्म आदि स्वरूप द्रव्ये तो प्राश्रित नहीं होरहीं हैं, (प्रतिज्ञा ) क्योंकि ये युक्त सिद्ध पदार्थ हैं, (हेतु ) अनेक काल द्रव्यों के समान ( अन्वयदृष्टान्त )। अर्थात्-संयोगसम्बन्ध के उपयोगी होरही युत-सिद्धि जहां वर्त रही है, उन पदार्थों में प्राधार प्राधेय भाव नहीं है, तभी तो काल परमाणुप्रों में प्राधार प्राधेय भाव नहीं है, ज्ञान प्रास्मा, या घट रूप, अथवा अग्नि उष्णता आदिक समवायसम्बन्धवाले अयुत-सिद्ध पदार्थों का आधार प्राधेयपना उचित है। आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि युत-सिद्धत्व हेतुका कूडा. वेर, थाली, दही, दण्ड, दण्डी, आदि करके व्यभिचार दोष आता है अर्थात्-कुण्ड, वेर, आदि युत-सिद्ध पदार्थों का बहुत अच्छा अाधार प्राधेय भाव बनरहा है जब कि साधारण शरीर वाले अनन्त प्रात्मानों का भी परस्पर में प्राधार प्राधेयपना स्वीकार किया गया है, 'साहारगमाहारो साहारणमारणपारणगहणं च । साहारण जीवाणं साहारणलक्खणं भणियं " एक निगोदिया जीव के आश्रित अनेक जीव वर्त रहे हैं वह भी दूसरों के आश्रित होरहा है, यों संयुक्त जीवों में भी परस्पर आधार प्राधेय भाव सलभ है, घोडेके ऊपर मनुष्य बैठा हुआ है, चौकी पर पुस्तक है, यहां घोड़ा, मनुष्य, आदिक युत-सिद्ध पदार्थों के भी निर्दोष आधार आधेय भाव देखा जाता है, अतः तुम्हारे हेतु में व्यभिचार दोष तदवस्थ है । अनेक काल द्रव्यों का उदाहरण भी साध्यशून्य है, कारण कि नीचे ऊपर के कालाणुषों में उपचार से आधेय भाव बन जाता है अथवा अनेक काल द्रव्य को उपलक्षण मान कर घोड़ा, मनुष्य, आदि को भी दृष्टान्त कह दिया जायगा, ऐसी दशा में अश्व, पुरुष आदिकों में साध्य दल के नहीं वर्तने से दृष्टान्त साध्य से रीता होगया।
न तानि तत्राधेयानि शश्वदसमवेतत्वे सति सहभावादिति चेन्न, हेतोरन्यथानुपपबनियमासिद्धः । न हि यत्र यदाधेयं तत्र शश्वत्समवेतं तदसहभावि च सर्व दृष्टं व्योमादौ नित्यमहत्त्वादिगुणस्याधेयस्य शश्वत्समवेतस्य सिद्धावपि तदसहभावाप्रतीतेः, कुडादौ वदरादेराधेयस्य सहभावसिद्धावपि शश्वत्समवेतत्वाप्रसिद्धिरिति समुदितस्य हेतोः साध्यव्यावृत्ती व्यावस्यमावादप्रयोजको हेतुः । नमःपुद्गलद्रव्याभ्यां व्यभिचाराच : न हि नभसि पुद्गलद्रव्यमाधेयं न भवति तस्य तदवगाहित्वेन प्रतीतस्तदाधेयत्व सिद्धः पयसि मकरादिवत, तत्र तस्य शश्वदसमवेतत्वे सति सहभावश्च हेतुः प्रसिद्धः । खे पुद्गलद्रव्यस्य सदा समवायासंभवामित्य त्वेन सहभावत्वेपि विपक्षेपि भावात तस्य व्यभिचार एव ।
पुनरपि लोकाकाश को धर्म आदिकों का आधार नहीं सिद्ध होने देने वाला पण्डित कह रहा है कि उस लोकाकाश में वे धर्म आदिक द्रव्ये ( पक्ष ) आश्रित नहीं हैं ( साध्य ) सर्वदा समवाय सम्बन्ध करके नहीं वर्तमान हारहों सन्तां सदा साथ हो वर्तना होने से ( हेतु )। अर्थात्-घटमें रूप