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________________ पंचम - अध्याय १२३ पक्षस्य वाधितप्रमाणत्वात् । तथाहि - आत्मा प्रदेशसंहारविसर्पवानस्ति महाल्पपरिमाण देशव्यापित्वात् प्रदीपप्रकाशवदित्यनुमानेन तावत्पक्षो वाध्यते । । न चात्र हेतुरसिद्ध : शिशुशरीरव्यापिनः पुनः कुमारशरीरव्यापित्वप्रतीतेः । स्थूलशरीर - व्यापिनश्च सतो जीवस्य कृशशरीरव्यापित्वसंवेदनात् । न च पूर्वापरशरीर विशेषव्यापिनो जीवस्य भेद एव प्रत्यभिज्ञानाभावप्रसंगात् । न वेह तदेकत्वप्रत्यभिज्ञानं श्रतं वाधकाभावादित्युक्तत्वात् । सम्भव है कि नैयायिक या वैशेषिकों का यह भी मन्तव्य होवे कि आत्मा ( पक्ष ) स्वकीय प्रदेशों के संहार और विसर्प को नहीं धारता है ( साध्य ) अमूर्त द्रव्य होने से ( हेतु ) आकाश के समान ( अन्वयदृष्टान्त ) । किन्तु इस प्रकार वैशेषिकों का वह अनुमान तो युक्तियों से रीता है, क्योंकि उनके पक्ष की अनुमान या श्रागमप्रमाणों से वाघा प्राप्त हो रही है, उन्हीं वाधक प्रमाणोंको स्पष्ट कर यों कहा जाता है कि श्रात्मा ( पक्ष ) अपने प्रदेशों के संहार और विसर्व को तदात्मक होकर धारने वाला है, ( साध्य ) बड़े परिमाण वाले और अल्प- परिमाण वाले देशों में व्यापक होजाने से ( हेतु ) प्रदीप के प्रकाश समान ( अन्वयदृष्टा ) | प्रथम इस निर्दोष अनुमान करके वैशेषिकों का पक्ष ( प्रतिज्ञा ) वाधित होजाता है । देखो इस अनुमान में कहा हेतु प्रसिद्ध नहीं है, कारण कि बालक के छोटे शरीर में व्याप रहे आत्मा का पश्चात् कुमार अवस्था के बड़े शरीर में व्याप जाना प्रतीत होरहा है तथा स्थूल शरीर में व्याप रहे सन्ते जीवका पुनः कृश शरीर होजाने पर वहाँ व्यापक हो र हेपन का सम्वेदन होरहा है । यदि यहाँ कोई यों आक्षेप करे कि शिशु अवस्था का जीव न्यारा है, और कुमार अवस्था का जीव भिन्न है, मोटे शरीर वाले जीव से पतले उस शरीर में ठहर रहा जीव पृथक् है, पहिले पिछले शरीर - विशेषों में व्यापने वाले जीव का भेद ही है । प्राचार्य कहते हैं कि यह आक्षेप नहीं चल सकता है क्योंकि एकत्व प्रत्यभिज्ञान के प्रभावका प्रसंग होजावेगा । जो मैं बालक था वही मैं अब युवा हूँ, मेरा मोटा शरीर अब पतला हो गया है, ऐसे आत्मा के एकत्व का ज्ञापक करने वाले प्रत्यभिज्ञान हो रहे हैं । यहां हो रहे वे एकत्व प्रत्यभिज्ञान भ्रान्त नहीं हैं क्योंकि प्रत्यभिज्ञान के वाधक प्रमाणों का प्रभाव है इस बात को हम पूर्व प्रकरणो में कई बार कह चुके हैं। तथागमबाधितश्च पक्षः स्याद्वादागमे जीवस्य संमारिणः प्रदेशसंहारविसर्पवत्वकथनात् । न च तदप्रमाणत्वं सुनिर्णीतासंभव द्वाधकत्वात् प्रत्यक्षार्थप्रतिपादकागमवत् । सर्वगतत्वादात्मनो न प्रदेशसंहारविसर्पवत्वमाकाशवदिति चेन्न, तस्यासर्व गतत्वसाधनात् । तथा वैशेषिकों का श्रात्मा में प्रदेशों के संहार और विसर्प के प्रभाव को साधनेवाला पक्ष हमारे प्राप्तोक्त श्रागमसे वाधित होरहा है क्योंकि स्याद्वाद सिद्धान्त में संसारी जीव को प्रदेशों के संहार और विसर्प से सहितपन का कथन किया गया है, “ लोगस्स असंखेज्जदिभागप्पहृदि तु सव्वलोगोत्ति, श्रप्पपदेशविसप्पण संहारे वावडो जीवो " इत्यादिक अथवा इन से भी पूर्ववर्त्ती उन आगम वाक्यों को प्रमाण नहीं कह सकते हो क्योंकि वाधक प्रमाणों के नहीं सम्भवने का अच्छा निर्णय हो चुका है। जैसे कि प्रत्यक्षप्रमाण द्वारा जाने गये अर्थ के प्रतिपादक आगम का अप्रमाणपना नहीं है । प्रर्थात्- कोई सज्जन देहली या आगरा को देखकर दूसरे स्थान पर वहाँ के दृश्यों का सच्चा वर्णन
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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