________________
१२२
श्लोक-वातिक वस्त्र के समान जीव स्वकीय प्रदेशों का संकोच या विस्तार होजाने से लोकाकाश में अनेक अवगाहनामों-अनुसार माश्रित होरहा है।
अमूर्तस्वभावस्याप्यात्मनोऽनादिसंबंधं प्रत्येकत्वात् कथंचिन्मूर्ततां विभ्रतो लोकाकाशतुन्यप्रदेशस्यापि कार्मणशरीर-वशादुपात्तं सूक्ष्मशरीरमधितिष्ठतः शुष्कचर्मवत्संकोचनं प्रदेशानां संहारस्तस्यैव वादरशरीरमधितिष्ठतो जले तलवद्विसर्षणं विप्रदेशानां सर्पस्ततोऽसंख्येयभागादिषु वृत्तिः प्रदीपयन्न विरुध्यते । न हि प्रदीपस्य निगवरण नभोदेशावधृतप्रकाशपरिमाणस्यापि शरावमानिकांपवरकाद्यावरणवशात् प्रकाशप्रदेशसंहारविसौं कस्यचिदसिद्धी यतो न दृष्टांतता स्यात् ।
___ यद्यपि प्रत्येक आत्मा का निज स्वभाव अमूतपना है तथापि प्रवाह रूप से अनादि कालीन सन्बन्ध को प्राप्त होरहे पुद्गल के प्रति ( साथ ) कथंचित् एकपना होजाने से प्रात्मा कथंचित मूर्तपन को धारण कर रहा है, लोकाकाश के प्रदेशों के समान असंख्यात प्रदेशों के धारी भी ऐसे मूत और कार्मण शरीर के वशसे ग्रहण किये गये सूक्ष्म शरीर को धारण कर रहे प्रात्मा का सूखे चमड़े समान संकुचित होजाना ही प्रात्माके प्रदेशोंका संहार है, संहारका अर्थ नाश नहीं है। और असंख्यात प्रदेशी, मूर्त, वादर शरीरमें अधिष्ठान करते हुये उस ही आत्माका जल में तैलके समान फैलजाना-रूप विसर्प ही प्रदेशों का प्रसर्प है, तिस कारण से प्रदीप के समान जीव का लोक के असंख्यातवें भाग आदि स्थानोंमें वर्त जाना विरुद्ध नहीं पड़ता है । अर्थात् मूत आत्मा मूर्त होरहे सूक्ष्म, स्थूल, शरीरों अनुसार संकुचित विसर्पित होरहा संता लोक के अनेक छोटे, बड़े स्थानों में वर्त रहा है, चमड़ा या रबड़ के सिकूड़ जाने पर उनके प्रदेश नष्ट नहीं होजाते हैं एवं जल में तेल के फैल जाने पर तेल के नवीन प्रदेशों की उत्पत्ति नहीं होजाती है, इसी प्रकार जीवों के प्रदेशों में कोई उत्पाद या विनाश नहीं है।
बाल्य अवस्था के शरीर की युवा अवस्था में बढ़ जाने पर आहार वर्गणा के प्रदेशों की वृद्धि अनुसार सर्वथा नवीन व्यंजन पर्याय उपज गयी है, और युवा से वृद्ध होने पर जीर्ण शीर्ण वृद्ध शरीर की व्यंजन पर्याय शरीरोपयागो पुद्गलों की अधिक हानि अनुसार नवीन रीत्या उत्पन्न होगयी वाल्य-अवस्था
यवा परुष की प्रात्मा का केवल प्रदेश विस्तार होगया है और थकवट की आत्मा का केवल प्रदेश सकोच हागया है, प्रदेशों की वृद्धि या हानि नहीं हुयी है, भले ही आत्मा की व्यंजन पर्याय उतनी ही मान ली जाय फिर भी शरीर की व्यंजन पर्याय और आत्मा की व्यंजन पर्याय में महान् अन्तर है, बुद्धिमान् पुरुष इस रहस्य को समझ लेवें। इस सूत्र में कहा गया प्रदीप हृष्टान्त प्रकरण प्राप्त साध्य के सर्वथा उपयोगी है, प्रावरण-रहित लम्बे, चौड़े, आकाश के प्रदेशों में दूर तक मर्यादित प्रकाशने के परिणाम को धारने वाले भी प्रदाप का सरबा, मौनी, घड़ा, डेरा, गृह, आदि आवरणों के वश से होरहे प्रकाश-प्रात्मक प्रदेशों के संहार और विसर्प दीखरहे सन्ते किसी भी वादी प्रतिवादी के यहां प्रसिद्ध नहीं है, जिससे कि दोपक को दृष्टान्तपना नहीं होसके अर्थात्लम्बे, चौड़े प्रकाशों वाला दीपक छोटे छोटे स्थानों में निरन्तराल मर्यादित होजाता है, अतः यह दृष्टान्त बहुत अच्छा है।
स्यादाकृतं, नात्मा प्रदेशसंहारविसमेवान् अम्वद्रव्यवादाकारादिति । तदपक,