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________________ पंचम-व्याय १२१ भाग मादि में जीव का अवगाह होजाना किस प्रकार भला विरुद्ध नहीं पड़ता है बतायो ? वैशेषकों के विचार अनुसार सम्पूर्ण लोक में प्रत्येक जीव का व्यापक होकर अवगाह होना चाहिये ऐसी योग्य पाशंका उपस्थित होजाने पर सूत्रकार इस अगले सूत्र को कहते हैं । प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत् ॥१६॥ • जीव सम्बन्धो प्रदेशों के संकोचन और प्रसारण से असंख्येय आदि भागों में जीव को वृत्ति होजाती है, जैसे कि प्रदीप का छोटे बड़े स्थलों में संहार और विसर्प हो जाने से अन्तराल-रहित अवकाश होजाता है। भावार्थ-छोटे घर में दीपक का प्रकाश पूर्ण रूप से उतने में समा जाता है और बड़े घर में वही प्रकाश अविरल फल कर समा जाता है। प्रदीप के निमित्त से हुमा प्रकाश भी प्रदीप का ही परिणाम है, अतः प्रदीप-प्रात्मक है। यद्यपि घर में फैलरहे अन्य पुद्गल स्कन्ध ही प्रकाशित स्वरूप परिणम गये हैं, तो भी वह प्रदीप का ही शरीर है जैसे कि प्रचण्ड प्रग्नि को कारण मानकर हुये यहां वहां दूर तक के उष्णता वाले पदार्थ सब अग्नि के अंग माने जाते हैं। जल रहा काठ कुछ देर में सब का सब अग्नि होजाता है, अतः प्रदेशों के संहार या विसर्प में प्रदीप का दृष्टान्त अनुपयोगी नहीं है । यों दृष्टान्त के सभी धर्म तो दार्टान्त में नहीं पाये जा सकते हैं । कुछ तो अन्तर रहता ही है, अन्यथा वह दृष्टान्त ही नहीं समझा जावेगा, दार्टान्त बन बैठेगा। असंख्ययभागादिषु जीवानामवगाहो भाज्य इति साध्यत इत्याह । लोक के असंख्येय भाग आदिकों में जीवों का विकल्पना करने योग्य अवगाह होरहा है, यह यहां साधा जाता है ( प्रतिज्ञा ) प्रदेशसंहार-विसर्पाभ्याम् यह हेतु है, प्रदीप दृष्टान्त है । इसी बात को ग्रन्थकार वार्तिकों द्वारा कहते हैं । न जीवानामसंख्येयभागादिष्ववगाहनं । विरुद्धं तत्पदेशानां संहाराप्रविसर्पतः॥ १ ॥ प्रदीपवदिति ज्ञया व्यवहारनयाश्रया। आधाराधेयतार्थानां निश्चयात्तदयोगतः ॥२॥ जीवों का लोक के असंख्यातवें भाग आदिकों में अवगाह होना विरुद्ध नहीं है ( प्रतिज्ञा ) उन जीवों के प्रदेशों का संहार होने से और विसर्प होने से ( हेतु )। प्रदीप के समान ( अन्वयदृष्टान्त )। इस अनुमान-अनुसार पदार्थों के व्यवहार का अवलम्ब लेकर “ प्राधार आधेयभाव" बन रहा जान लेना चाहिये, हां निश्चय नय से तो अर्थों के उस प्राधार प्राधेय भाव का योग नहीं है। भावार्थ-निश्चयनय से सम्पूर्ण पदार्थ अपने अपने शुद्ध स्वरूप में अवस्थित हैं, न कोई किसी को प्राधार है और न कोई किसो का प्राधेय है, हाँ व्यवहार नय. से प्राधार प्राधेय--व्यवस्था होरही है,
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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