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श्लोक-बार्तिक
पर्वजीवानां समानोवगाहः शंकनीयः । असंख्येयम्पासंख्येयविकल्पवात् । तत्मिद्धं लोकाकाशैकासंख्येयप्रदेशपरिणमनत्वावयाद्यसंख्येयभागानामिति नानारूपावगाहसिद्धिः।
यदि यहां कोई यों शंका करे कि उस लोक के एक असंख्यातवें भाग का और दो, तीन, आदि असंख्यातवें भागों का जब असंख्येय प्रदेशपना अन्तर रहित है। तब तो इस कारण सूक्ष्म जघन्य निगोदिया या सूक्ष्म वातकायिक जीव तेजस कायिक, त्रीन्द्रियक, चतुरिन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, अप्रतिष्ठित प्रत्येक, महामत्स्य, अथवा समुद्घात करने वाले यो सम्पूर्ण जोवोंका अवगाह समान होजायगा । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह शंका तो नहीं करनी चाहिये असंख्यातके क्योंकि असंख्याते भेद हैं, जैसे कि संख्यातोंके संख्याते भेद होसकते हैं । अतः वह अनेक प्रकारोंका अवगाह होना सिद्ध हो जाता है, लोकाकाश के भेद सख्याते दो, तीन, आदि संख्यात, असंख्याते भी असख्येय भागोंकी परिणति लोकाकाशके एक असंख्येय भाग होरहे प्रदेशों स्वरूप होजाती है। अर्थात्-कई असंख्यातवें भाग मिलकर भी लोक का एक असंख्यातवां भाग बन जाता है। इस प्रकार अनेक जीवों के नाना स्वरूप अवगाहों की सिद्धि होजाती है। दसों के दसों भेद हैं, सैकड़ों के सैकड़ों प्रकार हैं, इसी प्रकार असंख्यातवे भागों के असंख्याते प्रभेद हैं।
धर्मादी । सकललोकाकाशाद्यवगाहव चनसामर्थ्याल्लोकाकाशस्यैकस्मिन्नेकस्मिन् प्रदेशे चैकैकस्य कालपरमाणोरवगाहः प्रतीयते तथा च सूत्रकारस्य नासंग्रहदोषः ।
धर्म, अधर्म, पुद्गल आदि द्रव्यों का सम्पूर्ण लोकाकाश या लोक के असंख्येय भाग आदि में प्रवगाह होजाने का सूत्रकारद्वारा कण्ठोक्त निरूपण करने की सामर्थ्य से यह प्रतीत होजाता है कि लोकाकाश के एक प्रदेश पर एक एक काल परमाणु का अवगाह होरहा है । और तिस प्रकार होने से सूत्रकार श्री उमास्वामी महाराज के ऊपर काई 'नहीं संग्रह करने का' दोष लागू नहीं होता है।
___ भावार्थ-सूत्रकार ने धर्म, अधर्म, पुद्गल, और जीव द्रव्यों के अवगाह का सूत्र द्वारा निरू. पण किया है, आकाश द्रव्य तो स्वयं अपने में ही अवगाहित होरहा है। किन्तु छठे काल द्रव्य के अवकाशस्थान का सूत्र द्वारा निरूपण नहीं किया, अतः अवगाहित द्रव्यों का निरूपण करते हये सूत्रकार ने काल द्रव्य का संग्रह नहीं करपाया है। यह असंग्रह दोष खटकने योग्य है। इस आक्षेप का उत्तर ग्रन्थकार लगे-हाथ यों दिये देते हैं, कि बहुत से प्रमेय विना कहे ही अर्थापत्या उक्त शब्दों की सामर्थ्य से लब्ध होजाते हैं। जब कि धर्म, और अधर्म, का निवास स्थान पूरा लोक कहा, पश्चात पुद्गलों का एक प्रदेश आदि अवगाह स्थान कहा, पुनः जीवों का असंख्येयभाग आदि कहा, ऐसी दशा में कालाणों का लोकाकाश के एक एक प्रदेश पर स्थान पाजाना स्वतः ही लब्ध होजाता है, इस कारण असंग्रह दोष कथमपि नहीं आता है।
ननु च लोकाकाशप्रमाणत्वे जीवस्य व्यवस्थापिते कथं तदसंख्येयभागावगाहनं न विरुध्यत इत्याशंक्याह ।
यहां किसी की शंका है कि " असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मकजीवानाम् " इस सूत्र करके जीव के प्रदेशों की जब लोकाकाश प्रमाण व्यवस्था करा दो जा चुकी है, तो फिर उस लाक के असंख्यातवें