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________________ पंचम - अध्याय ११६ भावार्थ- कोई भी जीब किसी भी पर्यांय में असंख्यात प्रदेशों से कमती एक, दो, सौ, लाख, संख्याते प्रदेशों में नहीं ठहर पाता है, जीव की सब से छोठी व्यंजनपर्याय भी असंख्यात प्रदेशों को घेर रही है, सूच्यंगुल के प्रसंख्यातवें भाग में भी प्रसंख्याती उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी के समयों से अत्यधिक प्रदेश विद्यमान हैं । सूक्ष्मनिगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव के उत्पन्न होने के पश्चात् तीसरे समय में घनांगुलके असंख्यातवें भाग स्वरूप सब से छोटी जघन्य अवगाहना है, इस अवगाहना से एक, दो, आदि या असंख्याते प्रदेशों बढ़ती हुयी अगले समयों में इसी जीव की अथवा अन्य जीवों कभी अवगाहनायें हैं, सूक्ष्म निगोदिया की अवगाहना से दूनी ग्रवगाहना को या तिगुनी अवगाहना को लोकाकाश के दो या तीन प्रसंख्यातवें भाग कहा जा सकता है किन्तु जघन्य अवगाहना से एक, दो, पांच, सौ, संख्याते, प्रदेशों से बढ़ी हुयी अवगाहना को तो एक संख्यातवें भाग और दो प्रसंख्यातवें भागों की मध्यम दशा समझना और इस माध्यम को चार, पांच, आदि के बीचों में भी लागू कर लेना चाहिये । सूत्रकार या व्याख्याकार ने इनका कण्ठोक्त निरूपण नहीं किया है फिर भी " तन्मध्य पतितस्तद्ग्रहणेन गृह्यते " अनुसार उन सब का ग्रहण होजाता है । एक बात यह भी है कि जब लोक के सैकड़ों या प्रसंख्याते, असंख्याते भागों को मिला देने पर भी लोक का असंख्यातवां भाग रक्षित रह जाता है तो जघन्य अवगाहना के ऊपर दो, चार, दस, वीस, पचास, प्रदेशों के बढ़ जाने पर लोक के संख्यातवें भाग में कोई क्षति नहीं आती है, इसी प्रकार अवगाहनाओं के बढ़ते बढ़ते घनांगुल का संख्यातवां भाग, पूराघनांगुल, संख्यातेघनांगुल, होता हुआ महामत्स्य का साढ़े बारह करोड, योजन क्षेत्रफल वाला जीवसंस्थान होजाता है, मारणान्तिक समुद्घात या दण्ड कपाट, प्रतर, अवस्थाओं लोक का बहुत बड़ा प्रसंख्यातवां भाग या संख्यातवां भाग अथवा कुछ कम लोक बराबर भी जीव श्रवगाहना होजाती है जो कि लोकाकाश के उतने उतने प्रदेशों को घेर लेती है । नानाजीवानां केषांचित्साधारण शरीराणामेकस्मिन्न संख्येयभागेवगाहः, केषांचिद्द्वयोर संख्येय भागयोस्त्र्यादिषु चा संख्येयभागेष्विति भाज्योवगाहः । साधारणशरीर वाले किन्हीं किन्हीं अनन्तानन्त जीवों का लोक के एक ही प्रसंख्यातवें भाग में अवगाह है, और किन्हीं किन्हीं नाना जीवों का लोक के दो प्रसंख्यातवें भागों में और तीन दि यानी चार, सौ, संख्यात, असंख्याते, भी असंख्येय भागों में इस प्रकार अवगाह होजाना विकल्पनीय है । भावार्थ - साधारण नामक नामकर्म का उदय होने से वादर या सूक्ष्म जीव होजाते हैं, जिन अनन्तों जीवों का आहार श्वास, उत्श्वास, जन्म, मरण, साधारण हैं, वे जीव साधारण निगोदिया हैं । इस लोक में असंख्यातलोक प्रमाण स्कन्ध हैं, एक एक स्कन्ध में असंख्यात लोक के प्रदेशों बराबर अण्डर हैं, एक एक अण्डर में असंख्यात लोक प्रमाण आवास हैं, एक एक आवास में असंख्याती पुलवियां हैं, एक एक पुलवी में वादर निगोदिया जोवा के असंख्यात लाक प्रमाण शरीर हैं, एक एक शरीर में सिद्ध राशि से अनन्त गुणे अथवा प्रतीत काल के समयों से अनन्त गुणे निगोदिया जीव अपने स्वकीय शरीरों को लिये हुये भरे हुये हैं । ये प्रनेक जोव लाक के एक असंख्यातवें भाग दा, तात, प्रादिश्रस - ख्यातवें भागों में अवगाहित हो रहे हैं । न चैकस्य तदसंख्येयभागस्य द्वयाद्यसंख्येयभागानां चासंख्येव प्रदेशत्वाविशेषात
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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