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श्लोक-वाति
यहाँ कोई यदि यों कटाक्ष करै कि पुद्गलस्कन्धों का तिन परमाणों के समान सूक्ष्मता स्वरूप परिणाम हो जाना तो प्रसिद्ध है, ग्रन्थकार कहते हैं कि यह कटाक्ष उचित नहीं है कारण कि स्थूल होरहे भी शिथिल अवयव वाले कपासनिर्मित रूई के पिण्ड, वुरादा, रेख, प्रादि स्कन्धों का दवा देने पर कठिन अवयवो के सयोग हाजाने की दशा में सूक्ष्मपना देखा जाता है। तथा कूष्माण्ड. (तौमरा) विजौरा, बेल, प्रामला, बेर, कालीमिरच, वायविरंग, सरसों आदिमें सूक्ष्मपना का तरतमपना देखा जाता है, अतः किन्हीं २ ज्ञानावरण आदि कर्मों के पिण्डभूत कामणस्कंध, तेजस शरीर आदि में भी परमसूक्ष्मपन का अनुमान कर लिया जाता है जैसे कि पोस्त, मूग, मटर, सुपारी. वहेडा, अमरूद, खरबूजा, पेठा, घड़ा, कपड़ा, प्रासाद, पर्वत आदि में बड़प्पन के तरतमभाव का दर्शन होने से कहीं आकाश में परम महापरिमाण का अनुमान होजाता है। एक घर में सैकड़ों दीपकों के प्रकाश भरपूर होकर समाजाते हैं, बात यह है कि ऊंटनी के दूध से भरे हये पात्र में उतना ही मधु ( शह आजाता है, दूध में बूरा समा जाता है बुभुक्षित पारा सोने को खा जाता है और बोझउतना ही रहता है, बालू, रेत, या राख में पानी समा जाता है, इत्यादि स्थूल पदार्थ भी अन्य स्थूल पदा जब अवकाश दे रहे हैं तो सूक्ष्मपरिणामधारी अनन्ते पदार्थों का आकाश के एक, दो, तीन, आदि संख्यात, असंख्यात, प्रदेशों पर अवगाह होजाने में कौन आश्चर्य है ? । अत: असंख्यात-प्रदेशी लोकाकाश में अनन्तानन्त वादरपुद्गलों और सूक्ष्म पुद्गलों का निरावाध अवस्थान होरहा है।
पुद्गलों का अवगाह ज्ञात कर लिया अब क्रमप्राप्त जीव द्रव्यों का अवगाह किस प्रकार है ? ऐसी जिज्ञासा होने पर सूत्रकार श्री उमास्वामी महाराज अगले सूत्र को कहते हैं।
असंख्येयभागादिषु जीवानाम् ॥ १५॥ उस लोकाकाश के एक असंख्यातवें भाग को आदि लेकर पूरे लोकाकाश तक असंख्यात प्रकार के स्थानों में जीवों का अवगाह होरहा समझ लेना चाहिये।
लोकाकाशस्येति संबंधनीयं अवगाहो माज्य इति चानुवर्तते । तेनासंख्येयभागे असंख्येयप्रदेशे कस्यचिज्जीवस्य सर्वजघन्यशरीरस्य नित्यनिगोतस्यावगाहः, कस्यचिवयोग्तदसंख्येयभागयोः कस्यचित्र्यादिषु सर्वस्मिश्च लोके स्यादित्युक्तं भवति ।
सप्तमी विभक्ति के स्थान में बदली हुयी षष्ठी विभक्ति वाले " लोकाकाशका" इस प्रकार यहां सम्बन्ध कर लेने योग्य है, अवगाह और भाज्य इन दो पदों की भी यहां पूर्व सूत्र से अनुवत्ति करली जाती है, तिस कारण इस सूत्र का वाक्य बनाकर अर्थ यों होजाता है कि उस लोकाकाश के
होरहे तद्योग्य असंख्यातवें भाग में किसी एक जीव का यानी शरीर की सब से छोटी जघन्य अवगाहना वाले नित्यनिगोदिया का अवगाह होरहा है और किसी एक जीव का लोक के दो असंख्यातवें भागों में अवकाश होरहा है । एवं किसी किसी जोव का लोकाकाश के तीन, चार, संख्याते, असंख्याते, उन असंख्येय भागों में अवस्थान होरहा है, केवलि समुद्घात करते समय लोकपूरण अवस्था में तो सम्पूर्ण लोक में वह एक जीव फैल जाता है, यह इस सूत्र द्वारा कहा गया समझा जाता है।