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श्लोक-वार्तिक
लोकाकाश में अमूर्त हो रहे धर्म, अधर्म, द्रव्यों के अवगाह का प्रतिपादन कर अब उनसे विपरीत मूर्तिमान् प्रदेश और संख्यात, असंख्यात, अनन्त प्रदेशों वाले पुद्गल द्रव्यों के अवगाह की विशेष प्रतिपत्ति कराने के लिये ग्रन्थकार अगले सूत्र को कहते हैं ।
एक प्रदेशादिषु भाज्यः पुद्गलानाम् ॥ १४ ॥
एक प्रदेश को आदि कर संख्यात, असंख्यात प्रदेशों में पुद्गल द्रव्यों का अवगाह विकल्पनीय है । अर्थात् - तद्गुणविज्ञान वृत्ति द्वारा एक प्रदेश भी पकड लिया जाता है, एक आकाश के प्रदेश में एक परमाणु का अवगाह है । और बद्ध या श्रबद्ध होरहे दो, तीन, सैकड़ों, असंख्याते, अनन्ते परमारों का भी अवगाह है, दो प्रदेशों पर दो, तीन, संख्याते, असंख्याते, अनन्ते, बद्ध या अबद्ध परमाका अवगाह है, हां तीन प्रदेशों पर तीन, चार, संख्यात प्रादिक बद्ध या अबद्ध परमाणुत्रों का अवकाश है। दो प्रदेशों पर एक परमाणु कथमपि नहीं ठहर सकती है। तीन परमाणु यदि दो प्रदेशों पर ठहरेंगी तो प्रवद्ध दशा में एक प्रदेश पर दो और दूसरे प्रदेश पर एक यों तीन परमाणु ठहर जायगी किन्तु दो प्रदेशों में एक, एक प्रदेश पर डेढ़ डेढ़का बांट होकर तीन परमाणु नहीं ठहर पाते हैं, तीन परमाणुनोंका बन्ध होजाने पर तो एक नवीन अशुद्ध पुद्गल पर्याय उपज जाती है । अतः एक त्र्यणुक अवयवी का एक प्रदेश में या दो प्रदेशों में प्रथवा तीन प्रदेशों में अवस्थान होजाता है । एक परमाणु का दूसरे या तीसरे परमाणु के साथ सर्वात्मना बन्ध होजाने पर त्र्यरगुक केवल परमाणु के बराबर आकार वाला बन जायगा । तथा एक परमाणु के साथ दूसरे परमाण का सर्वात्मना बन्ध होजाने पर और तीसरे का एक देश से बन्ध होजाने पर व्यापक का संस्थान द्विप्रदेशी द्वयक के समान होगा, हां तीनों अणुओं का एकदेशेन बन्ध होजाने पर त्र्यणुक तीन प्रदेशों को घेर कर बैठ जावेगा । शक्ति रूप से परमाण के छः प्रांश साधे जा चुके हैं । अतः अप्रदेश अरण का भी एकदेशेन या सर्वात्मना बन्ध या संयोग मान लेना अनिष्टापत्ति नहीं है । एवं अनेक जातीय पुद्गल स्कन्धों का लोकाकाश में एक, दो, सौ, आदि संख्यात, असंख्यात प्रदेशों में अवगाह होरहा है अवगाह शक्ति के योग से अनन्तानन्त बादर या सूक्ष्म पुद्गल इस असंख्यात - प्रदेशी लोकाकाश में निर्विघ्न विराज रहे हैं ।
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अवगाह इत्यनुवर्तते लोकाकाशस्येत्यर्थवशाद्विभक्तिपरिणामः तेन लोकाकाश प्येकप्रदेशेष्वसंख्येयेषु च पुद्गलानामवगाह इति वाक्यार्थः सिद्धः । कथमित्याह -
"लोकाकाशेऽवगाहः” इस सूत्र से यहां "अवगाह" इस शब्द की अनुवृत्ति करली जाती है, और लोकाकाशे इस सप्तमी विभक्ति वाले पद की विभक्तिका अर्थ के वशसे षष्ठी विभक्ति रूप परिवाक्य का अर्थ सिद्ध होजाता है कि लोकाकाश के तीन, आदि संख्याते या असंख्याते अथवा अनन्ते अवगाह है। तथा लोकाकाश के असंख्यात प्रदेशों
वर्तन कर लिया जाता है तिस कारण इस प्रकार एक, दो, तीन, आदि संख्यात प्रदेशों में एक, दो, परमाणओं का अथवा इन से बने हुये स्कंधों का पर प्रसंख्याते या अनन्त परमाणों अथवा इन से बने हुये पुद्गल स्कन्धों का अवगाह है। कोई पूछता है कि इस प्रकार थोड़े से प्रदेशों पर बहुत से अणु या स्कन्धोंका श्रवगाह होजाना भला किस