SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम-प्रध्याय ११५ लोकाकाशेवगाह इत्यनुवर्तनीयं । कृत्स्न इति वचनात्तदेकदेश एव धर्माधर्मयोरवगाहो व्युदस्तः । कुतस्तौ कृत्स्नलोकाकाशावगाहिनौ सिद्धावित्याह । ___ लोकाकाश में अवगाह है, इस प्रकार पूर्व सूत्रोक्त पदों की यहां अनुवृत्ति कर लेनी चाहिये सम्पूर्ण लोकाकाश में अवगाह है, इस प्रकार कथन कर देने से उस लोकाकाश के एक ही देश में धर्म और अधर्म के अवगाह का निराकरण किया जा चुका है। यहां किसी जिज्ञासु का प्रश्न है कि किस कारण से वे धर्म और अधर्म द्रव्य सम्पूर्ण लोकाकाश में अवगाह होरहे सिद्ध हैं, बताओ? ऐसी जिज्ञासा होने पर श्रीविद्यानन्द प्राचार्य उत्तर-वातिक को कहते हैं । धर्माधर्मों मतौ कृत्स्नलोकाकाशावगाहिनौ । गच्छत्तिष्ठत्पदार्थानां सर्वेषामुपकारतः॥१॥ धर्म और अधर्म द्रव्य तो सम्पूर्ण लोकाकाश में अवगाह करने वाले माने गये हैं (प्रतिज्ञा ) क्योंकि गमन कर रहे और ठहर रहे सम्पूर्ण पदार्थों का उपकार किया जा रहा होने से। भावार्थसम्पूर्ण लोकाकाश में गमन कर रहे पदार्थों का उपकार धर्म द्रव्य से होता है, और ठहर रहे पदार्थों का ठहरा देना-स्वरूप उपकार अधर्म द्रव्य करके होता है, अतः ये दोनों द्रव्य लोकाकाश में ठसाठस अवगाह कर रहीं मानी गयी हैं। न हि लोकत्रयवर्तिनां पदार्थानां सर्वेषां गतिपरिणामिनां स्थितिपरिणामिनां च गतिस्थित्युपग्रहौ युगपदुपकारो धर्माधर्मयोरेकदेशवर्तिनोः संभवत्यलोकाकाशेपि तद्गतिस्थितिप्रसंगात । ततो लोकाकाशे गच्छत्तिष्ठत्पदार्थानां सर्वेषां गतिस्थित्युपकारमिच्छता धर्माधर्मयोः कृत्स्ने लोकाकाशेऽवगाहोभ्युपगंतव्यः । देखो बात यह है कि गति नामक परिणाम को धार रहे और स्थिति नामक परिणति को प्राप्त कर रहे लोकत्रयवर्ती यथायोग्य सम्पूर्ण पदार्थों के गति-उपग्रह और स्थिति-उपग्रह ये एक साथ होरहे उपकार तो एक एक देश में वर्त्तरहे धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्यके द्वारा नहीं सम्भवते हैं । अन्यथा प्रलोकाकाक में भी उन पदार्थों की गति और स्थिति होने का प्रसंग आजावेगा अर्थात्-एक देश में ठहर रहे धर्म या अधर्म द्रव्य यदि पूरे लोकाकाश में पदार्थों की गति या स्थिति को करा देवेंगे तब . तो यहाँ एक कोने में बैठ कर अलोकाकाश में भी पदार्थों को चला देंगे या ठहरा देंगे ऐसी दशा में प्रलोकाकाश में भी जीव और पुद्गल का गमन या स्थापन होजाने से लोक, प्रलोक, का विभाग नहीं बन सकेगा तिस कारण लोकाकाश में ही गमन करते हुये और ठहरते हुये सम्पूर्ण पदार्थों के गति-उपकार या स्थिति-उपकार को चाहने बाले पण्डित करके धर्म और अधर्म द्रव्य का सम्पूर्ण बोकाकाश में अवगाह होना स्वीकार कर लेना चाहिये ।
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy