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________________ ११४ श्लोक-वार्तिक प्रकार लोकाकाश का किसी अन्य अधिकरण में अवगाह होना चाहिये और उस अन्य का भी किसी तीसरे निराले अधिकरण में अवगाह होना चाहिये, तीसरे का भी चौथे आदि में अवगाह मानते मानते अनवस्था दोष होगा। यदि उस अनवस्था दोष के निराकरण के लिये उस लोकाकाश का स्वकीय निज रूपमें अवगाह माना जायगा तब तो उसी प्रकार सम्पर्ण द्रव्यों का अपनी अपनी निज मात्मा ( शरीर ) में ही अवगाह होजाग्रो, व्यर्थ में अधिकरणों के निरूपण की क्या आवश्यकता है ? इस प्रकार आशंका उपस्थित होने पर ग्रन्थकार करके यह समाधान कारक वात्तिक कहा जाता है। लोकाकाशस्य नान्यस्मिन्नवगाहः क्वचिन्मतः। आकाशस्य विभुत्वेन स्वप्रतिष्ठत्वसिद्धितः ॥२॥ लोकाकाश का फिर कहीं भी अन्य अधिकरण में अवगाह होना नहीं माना गया है क्योंकि आकाश सर्व व्यापक है इस कारण आकाश के स्व में ही प्रतिष्ठित बने रहने की सिद्धि होचुकी है। भावार्थ-अनन्तानन्त राजू लम्बा, इतना ही चौड़ा, और ठीक इतना ही ऊचा, समघन चतुरस्र प्राकाश द्रव्य है, उसके ठीक मध्य के चौदह राजू ऊंचा तथा दक्षिण उत्तर सात राजू लम्वा और पूर्व पश्चिम सात, एक, पांच, एक राजू चौड़ा इतना तीनसौ तेतालीस घन राजू प्रमाण भाग को लोकाकाश कल्पित कर लिया है लोकाकाश और अलोकाकाश का अभेद सम्बन्ध है, आकाश द्रव्य व्यापक है उससे बड़ा कोई द्रव्य नहीं है जो कि आकाश का आधार होसकता था, अतः प्राकाश द्रव्य स्वप्रतिष्ठित है, और अन्य द्रव्यों का उस आकाश में अवगाह है। प्राचारसार और त्रिलोकसार में अलोकाकाश को बरफी के समान घनसमचतुरस्र सिद्ध किया है। ततो नानवस्था नापि सर्वेषा स्वात्मन्येवावगाहस्तेषामविभुत्वात, परस्मिनधिकरणेऽवगाहोपपत्तेरन्यथाधाराधेयव्यवहाराभावात् । तिस कारण से यानी आकाश के स्वप्रतिष्ठितपन की सिद्धि होजाने से अनवस्था दोष नहीं प्राता है, तथा सम्पूर्ण द्रव्यों के स्वकीय स्वरूप में ही अवगाह होजाने का प्रसंग भी नहीं पाता है क्योंकि वे धर्म आदिक पांच द्रव्ये अव्यापक हैं, अतः अव्यापक पदार्थों का दूसरे व्यापक अधिकरण में अवगाह होना युक्ति-सिद्ध है, अन्यथा यानी-दूसरे पदार्थों में द्रव्यों का अवगाह नहीं मान कर निश्चय नय अनुसार स्वात्मा में ही सब का अवगाह माना जायगा तो जगत् प्रसिद्ध आधार आधेयपन के व्यवहार का अभाव होजायगा जो कि इष्ट नहीं है ? अतः प्रमाणदृष्टि और व्यवहार नय के अनुसार जो व्यवस्था है उसकी प्रतिपत्ति करो।। __उस लोकाकाश में अवगाहितपने करके अवधारण किये जा रहे न्यारी न्यारी द्रव्यों के अवस्थान । भेद होना सम्भव है. अतः उस विशेष अवस्थान की प्रतिपत्ति कराने के लिये सूत्रकार श्री उमास्वामी महाराज अगले सूत्र को कहते हैं। धर्माधर्मयोः कृत्स्ने ॥१३॥ सम्पूर्ण लोकाकाश में अन्तरालरहितपने करके धर्म प्रोर अधर्म द्रव्य का भवगाह होरहा है।
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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