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पंचम - अध्याय
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कहे जा चुके धर्म, अधर्म, आकाश, जीव, आदि द्रव्यों के अधिकरण की प्रतिपत्ति कराने के लिये सूत्रकार इस अगले सूत्र को कहते हैं
लोकाकाशेऽवगाहः ॥ १२॥
धर्म, धर्म आदि द्रव्यों का इस तीन सौ तेतालीस घन राजु प्रमाण लोकाकाश में अवकाश होरहा है । बाहर अलोकाकाश में नहीं ।
धर्मादीनामित्यभिसंबंधः प्रकृतत्वादर्थवशाद्विभक्तिपरिणामात् । लोकेन युक्तमाकाशं तत्रावगाहः । कुत इत्याह ।
पूर्व सूत्रों के अनुसार धर्म, अधर्म, आदिकों का प्रकरणप्राप्त होने से यों उद्देश्य दल की प्रोर सम्बन्ध कर लिया जाता है कि धर्मादिकों का लोकाकाश में अवगाह है । आद्यसूत्र में और तृतीयसूत्र प्रथमा विभक्ति वाले धर्म प्रादिकों का वचन है, किन्तु कृदन्त श्रवगाह किया की अपेक्षा षष्ठयन्त पद की आवश्यकता है, अतः अर्थ के वश से विभक्ति का बदलकर विपरिणाम कर लिया जाता है, धर्म, अधर्म पुद्गल, जीव काल इन पांच द्रव्यों का समुदाय लोक है, लोक करके युक्त होरहा जो ठीक मध्यवर्ती प्रकाश है, वह लोकाकाश है, उस लोकाकाश में धर्म प्रादिकों का अवगाहन होरहा है, जैसे कि समुद्र में जल, मगर, मछली, आदि का अवगाह होरहा है। कोई श्रातुर पुरुष पूछता है कि यह लोकाकाश में धर्म आदि द्रव्यों का अवगाह होरहा भला किस प्रमारण से निर्णीत किया जाय ? यों जिज्ञासा होने पर ग्रन्थकार उत्तर वार्तिक को कहते हैं ।
लोकाकाशेवगाहः स्यात्सर्वेषामवगाहिनां ।
बाह्यतोसम्भवात्तस्माल्लोकत्वस्यानुषंगतः ॥ १ ॥
अबगाह करने वाले सम्पूर्ण पदार्थों का लोकाकाश में प्रवगाह है, उस लोक से बाहर आकाश से अतिरिक्त किसी भी द्रव्य के अवगाह का असम्भव है, यदि लोक से बाहर अलोकाकाश में भी कुछ द्रव्यों का अवगाह माना जायगा तो उस प्रलोकको लोकपन का प्रसंग होजायगा ।
न हि लोकाकाशाद्वाह्यतो धर्मादयोऽवगाहिनः संभवन्त्यलोकाकाशस्यापि लोकाकाशत्वप्रसंगात् । ननु च यथा धर्मादीनां लोकाकाशेऽवगाहस्तथा लोकाकाशस्यान्यस्मिन्नधिकरणेऽवगाहेन भवितव्यं तस्याप्यन्यस्मिन्नित्यनवस्था स्यात्, तस्य स्वरूपेवगाहे सर्वेषां स्वात्मन्यवावगाहोस्त्वित्याशंकायामिदमुच्यते ।
लोकाकाश से बाहर की ओर अवगाह करने वाले धर्म आदिक द्रव्य नहीं सम्भवते हैं, अन्यथा लोकाकाश को भी लोकाकाशपन का प्रसंग प्रावेगा जो कि किसी भी वादी प्रतिवादी, को इष्ट नहीं है । पुनः यहाँ किसी का प्रश्न है कि जिस प्रकार धर्मादिकों का लोकाकाश में प्रवगाह है उसी
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