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________________ ११२ श्लोक-वार्तिक अरूपपन, एकद्रव्पपन, निष्क्रियपन, स्वभाव भी प्रधानता करके ही उन धर्म आदिकों के समझने चाहिये,गौण रूप से धर्मादिकों के अनित्यपन, अनवस्थितपन, सरूपन. अनेकद्रव्यपन, स्वभावों का भी सद्भाव है, पुद्गल के रूपीपन के समान संसारी जीव का रूप-सहितपन स्वभाव भी वत्तं रहा है, अतः सूत्र में नहीं कहे गये भी उन स्वभावों को अर्थापत्ति से जान लिया जाय । सूत्र में तो संक्षेप से ही कथन हुआ करता है । तिस प्रकार कथन करने पर ही सुनयों से अन्वितपना बन सकता है अन्यथा यानी सूत्र में कहे गये स्वभावों का ही एकान्तरूप से हठ किया जायगा तो दुनयों से अन्वितपन का प्रसंग आवेगा देखिये द्रव्य को ही विषय करनेवाले द्रव्याथिक नय से उन धर्मादिकों का नित्यपना होते हये भी पर्यायाथिक नय अनुसार कथन करने से उनका अनित्यपना स्वीकार किया जाता है, अन्यथा यानी सर्वथा कूटस्थ नित्यद्रव्यपन मानने पर तो धम आदिकों में अर्थ--क्रिया होजाने का विरोध होने से वस्तुपन का प्रयोग होजायगा। तथा द्रव्यरूप से अवस्थित होते हुये भी पर्यायरूप से धर्म प्रादिकों का अनवस्थितपना सिद्ध होरहा है, इस कारण अवयवों का नियत अवस्थान नहीं होसका अर्थात्द्रव्ये तो इयत् परिमाण रूप से नियत होरहीं परिगणित हैं किन्तु पर्यायें अवस्थित नहीं हैं । तिसी प्रकार स्वकीय स्वरूप से धर्मादिकों का रूप रहितपना होते हुये भी मूर्तिमान् द्रव्यों के साथ सम्बन्ध होजाने से उन धर्मादिकों के गौणरूपेण रूपसहितपन का व्यवहार कर लिया जाता है। तथैकद्रव्यत्वेपि विभागापेक्षया तद्विभागविवक्षायामनेकद्रव्यत्वोपपत्तेः। परिस्पंदक्रियया निष्क्रियत्वेपि तेषामवस्थितत्वादिक्रियया सक्रियत्नात् । एवमसंख्येयप्रदेशत्यादयोपि प्रधानभावेनैव धर्मादीनां गुणभावेन संख्येयप्रदेशत्वादिस्वभावानामप्यविरोधात् परिमिततद्भापेक्षया संख्योपपत्ते रेति सर्वत्र स्यान्का: सत्यलांछनो द्रष्टव्यम्तस्यानुक्तस्यापि सामर्थ्यात् सर्वत्र प्रतीयमानत्वादिति प्रकरणार्थोपसंहृतिः। तथा "पा आकाशादेकद्रव्याणि" यों एकद्रव्यपन होते हुये भी विभाग की अपेक्षा करके उन धर्म आदिकों के विभाग की विवक्षा करने पर अनेकद्रव्यपना भी युक्तिसिद्ध है, अतः गौणरूप से धर्म अधर्म, और आकाश का अनेकद्रव्यपना स्वभाव भी मान लिया जाय । तथा हलना, चलना, भ्रमणकरना, चढ़ना, उतरना, आदि परिस्पन्दरूप क्रिया करके उन धर्म, अधर्म, आकाश, द्रव्यों का निष्क्रियपना है तो भी धात्वर्थस्वरूप, अवस्थितपन, अस्तित्व, द्रवण आदि अपरिस्पन्द रूप क्रियाओं करके क्रियासहितपना है, इसी प्रकार आठवें, नवमें सूत्रों करके कहे गहे धर्म आदिकों के असंख्येयप्रदेशीपन आदिक स्वभाव भो प्रधानरूप करके ही समझे जांय गौणरूपसे तो संख्यातेप्रदेशोंसे सहितपन र स्वभावों का भी कोई विरोध नहीं है परिमित होरहे उन उन भावों की अपेक्षा करके धर्म आदिकों के अल्पदेशीय प्रदेशों की संख्या करना बन जाता है इस प्रकार सभी स्थलों पर सत्य का अमोघ चिन्ह होरहा स्यात्कार देख लेना चाहिये शब्दों द्वारा नहीं कहे गये भी उस स्यात्कार की केवल अन्य उक्त शब्दों की सामर्थ्य से सर्वत्र प्रतीति कर ली जाती है। वस्तु के चाहे किसी भी स्वभाव का निरूपण किया जाय वहां कण्ठोक्त नहीं कहनेपरभी अनेकान्त का द्योतक स्यात्पद उपस्थित होजाता है, अतः पांचवें अध्याय के उक्त ग्यारह सूत्रों द्वारा कहे गये स्वभावों में स्याद्वादसिद्धान्त की योजना कर लेनी चाहिये । इस प्रकार प्रकरणप्राप्त अर्थ का उपसंहार होचुका है, अब सूत्रकार दूसरे प्रकरण का प्रारम्भ करते हैं।
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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