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________________ पंचम-अध्याय विद्यादजीवकायानां द्रव्यत्वादिस्वभावतां । एवं प्राधान्यतः प्रोक्तां समासात् सुनयान्विताम् ॥ ५ ॥ अजीव कायों के सुनयों करके अन्वित होरहे और संक्षेप से ग्यारह सूत्रों द्वारा इस प्रकार अच्छे कहे जा चुके प्रधानरूप से द्रव्यत्व, नित्यपन, रूपित्व, निष्क्रियत्व आदि स्वभावों को समझ लिया जाय । ___धर्मादीनामजीवकायानामादिसूत्रोक्तानां द्रव्यत्वस्वभावो जीवाना च प्राधान्येन वेदितव्यो गुणभावेन पर्यायत्वस्वभावस्यापि भावात् । शुद्धद्रव्यस्य हि सन्मात्रदेहस्य पर्याया एवाजीवकाया जीवाश्च तस्यैकस्यानंतपर्यायस्यातिसंक्षेपतोभिमतत्वात् । एक द्रव्यमनंतपर्यायमिति बचनात्। पंचम अध्याय के " अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः" इस आदिसूत्र में कहे जा चुके धर्म, अधर्म, आदि का द्वितीय सूत्र द्वारा कहा गया द्रव्यपन-स्वभाव, और तृतीयसूत्र द्वारा कहा गया जीवों का भी द्रव्यपन स्वभाव, प्रधानता करके समझ लेने योग्य है, क्यों के गौरण रूप से उक्त धर्म, अधर्म, आकाश, पुदगल और जीवद्रव्यों के पर्यायपन स्वभाव का भी सद्भाव है, अर्थात-एकान्त रूप से इन सब को द्रव्य ही कहते जाना ठीक नहीं है, ये किसी अपेक्षा पर्याय भी हैं जब कि सिद्धान्त शास्त्रों में इस प्रकार निर्णीत है, कि "सत्" केवल इतने ही शरीर को धार रहे शुद्ध द्रव्य की ये सब पर्याय ही हैं उस अनन्त पर्यायों वाले एक सत् का प्रतिसक्षप से कथन करना अभीष्ट है, एक द्रव्य है, और उसकी अनन्ती पर्यायें हैं, इस प्रकार प्राचीन शास्त्रों में कहा गया है। भावार्थ-"अश--कल्पनं पर्यायः " अशों की कल्पना करना यह पर्याय का सिद्धान्तलक्षण है। शुद्ध संग्रहनय की अपेक्षा एक ही सत् स्वरूप वस्तु के ये जीव, धर्म, आदि सब पर्यायें हैं. " सत्ता सव्वपयत्था सविस्स हवा अणन्तपज्जाया ? भंगोप्पादधुवत्था सम्पडिवक्खा हवदि एक्का" ऐसा श्री कुन्दकुन्द स्वामी का वचन है, अतः स्याद्वादसिद्धान्त अनुसार अपनी पर्यायों की अपेक्षा तो ये धर्म आदिक पर्यायें हैं हो किन्तु सत् पदार्थ के अंश होने के कारण भी ये पर्यायें हैं, हाँ इनमें पर्यायपना गौण रूप से है, प्रधान रूप से ये स्वतंत्र न्यारे न्यारे अखण्ड असंकीर्ण द्रव्य ही हैं। तथा नित्यत्वावस्थितत्वारूपत्वैकद्रव्यत्व निष्क्रियत्वस्वभावोऽपि प्राधान्येनैव तेषा गुणभावेनानित्यन्वानवस्थितत्वसरूपत्वानेकद्रव्यत्वस्वभावानामपि भावात तेषामनुक्तानामपि गम्यमानत्वात समासतोभिधानात् । तथैव सुनयान्वितत्वोपपत्तेरन्यथा दुर्नयान्वितत्वप्रसंगात् । द्रव्यार्थानित्यत्वेपि पर्यायार्थादेशादनित्यत्वोपगमादन्यथार्थक्रियाविरोधाद्वस्तुत्वायोगात् । तथा द्रव्यतोवस्थितत्वेपि पर्यायतोनवस्थितत्वसिद्धरित्यवयवावस्थानाभावात् । तथा स्वरूपतो अरूपत्वैपि मूर्तिमद्व्यसबंधात्तेषां सरूपत्वव्यवहारात् । तथा इस पांचवे अध्याय में चौथे, पांचवे, छठवें, सातवें, सूत्रों द्वारा नित्यपन, अवस्थितपन,
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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