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श्लोक-वार्तिक
रूपाण अवयव अवयवी होजावेगा अवयवी के ही एक देश हुआ करते हैं और तिस प्रकार उस अवयवी के भी पूर्व अवयवों के साथ एक एक देश करके सम्बन्ध-व्यवस्था मानने पर उत्तरोत्तर अनेक प्रदेशों की कल्पना करने से अनवस्था दोष प्राता है। द्वितीय पक्ष अनुसार सर्वांग रूप से सम्बन्ध मानने पर तो अनेक प्रदेशों का पिण्ड विचारा केवल अणु के समान परिमाणवाला होजायगा क्योंकि प्रकरणात रूपाणु के आठों प्रदेशों में अन्य रूपाणुओं के प्रदेशों का सर्वाङ्गीण प्रवेश हो जायगा और उनका भी परस्पर में अनुप्रवेश होजावेगा यों असंख्य परमाणओं का परस्पर में परिपूर्णरूप से सम्बन्ध हो जाने पर पिण्ड एक परमाणु के बराबर ही बन जायगा और तैसी दशा में घट, पट, पर्वत, भींत आदि बड़े बड़े स्कन्धों की प्रतीति होने का अभाव होजायगा ।
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अथ महतः स्कन्धस्य प्रतीत्यन्यथानुपपत्त्या प्रकारातरेण रूपाणुप्रदेशानामन्यरूप।णुप्रदेशैः संबधसिद्धेः कात्स्न्यैकदेशपक्षोपात्तदोषाभावो विभाव्यते परमाणुनामपि प्रकारांतरेण संबधस्तत एवेति समानस्तत्पक्षोपात्तदोषाभावः । वक्ष्यते च परमाणूनां वंधपरिणाम हेतुः स्निग्धरूक्षत्वादिति परिणाम विशेषः प्रकारान्तरमिति नेहोच्यते—
अब यदि आप यों विचार करें कि बड़े बड़े स्कन्धों की प्रतीति का होना अन्यथा बन नहीं सकता है, अतः एक देश और सम्पूर्ण देश इन दो प्रकारों से अतिरिक्त तीसरे रूपाणु के प्रदेशों का अन्य रूपाण प्रदेशों के साथ सम्बन्ध होजाने की सिद्धि कर ली जाती है, अतः सर्वांगीरणता या एक देश इन दो पक्षों में उपादान किये गये दोषों का प्रभाव विचार लिया जाता है, तब तो हम जैन कहेंगे कि तिस ही कारण से तुम्हारी रूपाणओं के समान हमारे यहां मानी गयी परमाणों का भी उसी तीसरे प्रकार करके यानी कथंचित् एकदेश और कथंचित् सर्वदेश अथवा स्निग्धरूक्षपन इस ढंग करके-सम्बन्ध स्वीकार कर लिया जाता है, इस कारण उस पक्ष में उपादान किये गये दोषों का प्रभाव समान है ।
अर्थात् - आठ प्रदेश वाली परमाणु को मानने वालों के यहाँ जिस ढंग से अनवस्था दोष का निवारण कर दिया जाता है, तथा पिण्ड के प्रणुमात्र होजाने और परम स्कन्ध की प्रतीति नहीं होसकने का जैसे निवारण किया जाता है, उसी नीति के अनुसार एक प्रदेश वाली परमाणु को स्वीकार करने वाले जैनों के यहाँ भी उक्त दोषों का परिहार होजाता है, सूत्रकार द्वारा इसी अध्याय में स्निग्ध रूक्षपने से बन्ध होता है, "स्निग्धरूक्षत्वाद्वध:" इस प्रकार परमाणुओं की बन्ध परिणति का कारण कह दिया जायगा, वह स्निग्ध रूक्ष पर्यायों के अविभाग- प्रतिच्छेदों का द्वद्यधिकपना स्वरूप परिणाम - विशेष ही तीसरा प्रकार है, जो कि एकदेशेन संसर्ग कराता हुआ परमाणुओं करके बड़े पिण्ड को बना देता है, और कदाचित् श्रनेक परमाणुओं का पिण्ड सर्वात्मना संसर्ग होजाने पर अणुमात्र ही रह जाता है, तभी तो इस छोटे से लोक में अनन्तानन्त परमाणुयें निरापद विराजमान हैं, विचित्र विचित्र कारणों से पदार्थों की अनेक प्रकार परिणतियां बन बैठती हैं । अनेकान्तवादियों के यहाँ एक देश और सर्व देश दोनों पक्ष स्वीकृत होजाते हैं। हां उन पक्षों के घटना की पद्धति को समझ लेने पर पुनः श्रवयवी और अवयवों के कार्यकारणभाव में कोई शंका नहीं रहती है। उस न्यारे प्रकार को सूत्रकार स्वयं कहेंगे, इस कारण यहाँ श्री विद्यानन्द स्वामी करके इस विषय में कुछ नहीं कहा जाता है ।