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पंचम - अध्याय
परमाण को आठ प्रदेश का कहने वाले पण्डित यहाँ शंका करते हैं कि इस प्रकार परमाणु का एक ही प्रदेश मानने पर तो बड़े लम्बे चौड़े महान् स्कन्ध की प्रतीति होने के प्रभाव का प्रसंग आवेगा क्योंकि परमाण के अनेक प्रदेश तो नही हैं, ऐसी दशा में अनेक परमाणुओं के संयुक्त होजाने पर भी पिण्ड अरणमात्र ही बना रहेगा । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि वह बड़े स्कन्ध की प्रीति नहीं होना तो तुम्हारे प्राठ प्रदेश वाली अरण को कहने वाले प्रवाद में भी समान है, आठ प्रदेश वाले अणु का एक देश करके संयोग मानने पर छिद्र रह जाते हैं, ऊपर नीचे के स्थल भर नहीं पायेंगे और एक देश का पक्ष लेने पर अनवस्था दोष भी प्राता है, अतः सम्पूर्ण रूप से संयोग मानने वाला दूसरा पक्ष ही लेना पड़ेगा । ऐसी दशा में पिण्ड प्रगु मात्र रह जायगा और बड़े पिण्ड की प्रतीति नहीं हो सकेगी, इस बात को ग्रन्थकार स्वयं विशद रूप से अग्रिम वार्तिकों द्वारा कहते हैं ।
यथारणुभिर्नानादिक्कैः संबंधमादधत् । देशतोवयवी तत्प्रदेशोन्यैः प्रदेशतः ॥ ३ ॥ सर्वात्मना च तैस्तस्यापि संबंधेणुमात्रकः । पिंड: स्यादन्यथोपात्तदोषाभावः ममो न किम् ॥ ४॥
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जिस प्रकार एक मध्य-वर्ती परमाणु इधर उधर नाना दिशाओं में वर्त्त रहे नाना परमाणुत्रों के साथ सम्बन्धको सब ओर से धारण कर रहा सन्ता एक एक देश की अपेक्षा से वह प्रदेश यांनी परमाण श्रवयवी हुआ जाता है, उसी के समान उस अवयवी के पहिले से भी अनेक देश थे उन अन्य प्रदेशों के साथ भी एक एक देश करके सम्बन्ध धारने पर अनवस्था दोष का प्रसंग आता है । हाँ द्वितीय पक्ष अनुसार सम्पूर्ण रूप से भी उन नाना दिशा वर्ती ग्रनेक परमाणों के साथ उस मध्यवर्त्ती परमाणु का सम्बन्ध मानने पर तो पिण्ड अणु मात्र होजायगा अन्यथा यानी जैन सिद्धान्त अनुसार अन्यप्रकारों से सम्बन्ध मानने पर यदि गृहीत दोषोंका प्रभाव किया जायगा तो प्रदेशमात्र परमाणु को मानने वालों के यहां भी वह दोष का प्रभाव क्यों नहीं समान रूप से लागू होगा ? अर्थात् द्रव्य रूप से निरंश और शक्ति रूप से सांश परमाण का अन्य दिशा-वर्ती परमाणओ के साथ बन्ध होजाने पर महान स्कन्ध की प्रतीति होजाती है, यह आचार्यों करके माना गय। निर्दोष मागं है ।
अष्टप्रदेशोपि हि रूपाणुः पूर्वादि दिग्गतरू एवं तर प्रदेशैरेकशः संबंधमधितिष्ठनेकदेशेन कार्त्स्न्येन वाधितिष्ठेत् ? एकदेशेन चेददयवी प्रदेशः स्यात्परमाणुवत् तथा चानवस्था परापर प्रदेशपरिकल्पनात् कात्स्न्येन चेत् पिण्डोऽगु मात्रः स्यात् रूपा प्रदेशेष्वष्टासु रूपाएवंतरप्रदेशानां प्रवेशात्तेषां च परस्परानुप्रवेशात् । तथा च परम स्कंधप्रतीत्यभावः ।
यहाँ हम जैन प्रश्न उठाते हैं कि आठ प्रदेशों वाला भी रूपाण पूर्व आदि दिशाओं में प्राप्त वार सम्बन्ध को प्राप्त होरहा सन्ता क्या एक बताओ यदि रूपाण एक देश करके अन्य समान तुम्हारे यहां माना गया प्रदेश स्वरूप
होरहे अन्य अन्य रूपाण स्वरूप प्रदेशों के साथ एक ही देश करके अथवा क्या पूर्ण रूप करके ही संसर्गित होगा रूपायों के साथ सम्बन्धित होगा तब तो परमाणु के