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________________ १०८ श्लोक-वातिक परमाणु के पाठ प्रदेश को मानने वाले कहते हैं कि यदि परमाणुत्रों के अनेक प्रदेशों से सहितपना नहीं माना जायगा तो सर्वा गरूप से संयोग होजाने पर पिण्ड में भी केवल अरण वरावर बने रहने का प्रसंग आवेगा क्योंकि एक परमाणु दूसरे परमारण में सर्वागीण प्रविष्ट होजायगी और उसी में तीसरी, चौथी, आदि अणुयें सर्वात्मना अन्तःप्रविष्ट होजायगी तो ऐसी दशा में सुमेरु पर्वत भी अरण के वरोवर छोटा बन बैठेगा और यदि एक देश करके परमारपत्रों का संयोग माना जायगा तब तो सावयवपना होने पर अनवस्था दोष का प्रसंग आवेगा कारण कि पहिले से ही जिस पदार्थ के कतिपय अवयव होते हैं, उसी पदार्थ के कई एक एक देशों की कल्पना करके उसका एक देश करके संयोग होजाना बन सकता है, और यों पहिले से ही कतिपय अवयवों करके गढ़ गया वह अवयवी पदार्थ हुआ उन पूर्ववर्ती अवयवों के संयोग में भी एक देश करके संयोग होने की कल्पना करते करते यों लम्बी धारा बढ़ती चलीजायगी, इस प्रकार अनवस्था होजाती है, याहे सर्वात्मना संयोग मानो चाहे एकदेशेन संयोग मानो बड़े स्कन्ध की प्रतीति होने का विरोध आता है, अतः हम कहते हैं कि व ग्राठ प्रदेशों वाला रूपारण उत्तरोत्तर भेदा जा रहा अन्त में जाकर सिद्ध होजाता है जो कि सदा किसी करके भी स्वयं पुनः भेदने योग्य नहीं है, किन्तु वह परमाण फिर अशों से रहित नहीं है, अस्मदादि जीवों को प्रत्यक्षज्ञान द्वारा प्रवेद्य होरहे उस सांश परमारण की बुद्धि करके परिकल्पना कर ली जाती है। इस प्रकार किन्हीं विद्वानों का रूपारण के पाठ प्रदेशों का मानने वाला प्रवाद है। ग्रन्थकार कहते हैं कि वह कुत्सित पक्ष का परिग्रह भी इस ही प्रदेश--स्वरूप परमारणों से बनजाने योग्य स्कन्ध के कथन करके विचार कर दिया गया देख लेना चाहिये । अर्थात-स्यावाद सिद्धान्त अनुसार एक प्रदेश वाले परमारण का सर्वात्मरूप से या एक देश रूप से संयोग होजाने पर अनेक पण अणमात्र भी होसकते हैं और बड़े स्कन्ध स्वरूप भी परिणम जाते हैं, कोई दोष नहीं पाता है, तुम्हारे पाठ प्रदेशवाले रूपाण के सदा भी अभेद्यपन का प्रयोग है, पाठ प्रदेश वाले पदार्थ के पुनरपि कतिपय टुकड़े होसकते हैं, इसी बात को स्पष्ट करके यों अनुमान द्वारा दिखलाया जाता है कि रूपाणु (पक्ष ) भेदने योग्य है, ( साध्य ) मूत होते सन्ते अनेक अवयवों वाला होने से ( हेतु ) घट के समान (अन्वयदृष्टान्त )। यहां हमारे हेतु का आकाश आदि करके व्यभिचार दोष नहीं आता है क्योंकि मूर्तिवाला होते सन्ते इस प्रकार हेतु में विशेषण दे रखा है, वे आकाश आदि तो अमूर्त हैं, तिस कारण घट, कपाल, कपालिका, षडणक, पंचाणक यों भेद को प्राप्त होरहा सन्ता सब से अन्त में जाकर एकप्रदेशवाला ही परमाण सिद्ध होता है, अतः प्रष्ट प्रदेशवादी भले ही उसको रूपाणु कहें या बौद्ध उसको स्वलक्षण कहैं, नैयायिक परमाणक कहैं, जैन उसको अरण कहैं। बात यह है कि अन्तिम सब से छोटा अवयव केवल एक प्रदेश स्वरूप है, हां उसकी व्यंजनपर्याय समघनचतुरस्र है, झगड़ा वढ़ाना व्यर्थ है, परोक्ष पदार्थों का निर्णय अप्तोक्त प्रागमों से बहुत बढ़िया होता है। नन्वेवं परमस्कन्धप्रतीत्यमावप्रसंग इति चेन्न, तस्याष्टप्रदेशाणवादेपि समानत्वात् । तथाहि
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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