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पंचम-अध्याय
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लेने चाहिये, हाँ कदाचित् भ्रान्ति होजाने से यदि किसी गुण का निश्चय नहीं किया जा सकता है तो साधन की प्रवृत्ति होती है, यानी-हेतु के द्वारा उस अनिर्णीत गुरग का निश्चय कर लिया जाता है। भावार्थ--जैसे असाधारण, सूक्ष्म, परमाणु स्वरूप, स्वलक्षण के क्षणिकपन का ज्ञान निर्विकल्पक प्रत्यक्ष द्वारा उसी समय हो चूका था क्योंकि देखे जा चुके पदार्थ में कोई न्यारे न्यारे अनेक प्रश नहीं हैं। जिसमें कि कुछ अशों को जान लिया जाय और कतिपय स्वभावों को छोड़ दिया जाय। बात यह है कि निविकल्पक प्रत्यक्ष करके पदार्थका सर्वांगीण प्रत्यक्ष होजाता है किन्तु अनादि--कालीन वासना से जीवों के उत्पन्न होगये भ्रान्ति ज्ञान अनुसार उस क्षणिक पदार्थ में कालान्तरस्थायीपन या नित्यपन स्थूलपन आदि का ज्ञान हो जाता है, इस भ्रान्ति को दूर करने की सामर्थ्य निर्विकल्पक ज्ञान में नहीं है, अत: " सर्व क्षणिक सत्त्वात् कृतकत्वाद्वा" इस निश्चयज्ञानात्मक अनुमान करके देखे ही क्षणिकत्व का निर्णय कर लिया जाता है, इसी प्रकार परमाणु को जान चुकने पर ही उसके सम्पूर्ण स्वभावों का उसी समय दर्शन होचुका था, केवल कुछ गुणों का तिस प्रकार निश्चय नहीं उपजने से परमाणुओं को अप्रतिभासित कह दिया जाता है ।
सत्व, पदाथत्व, आदि स्वभावों करके ही उन परमाणु स्वरूप विषयों में निश्चय की उत्पत्ति होती है क्योंकि वस्तु के स्वभाव अनुसार उस निश्चय के कारण होरहे १ अभ्यास, २ प्रकरण, ३ बुद्धिपाटव और ४ अथित्व स्वरूपों का वहाँ सद्भाव है। वस्तु का यह स्वभाव है कि प्रतीति के अनुसार अनुभव कराने में अतीव दक्ष होरहा वह स्वभाव वस्तु के किसी ही अभ्यस्त अंश में दूसरे स्मरण करता जीव के प्रति स्मति के बीज का प्राधान कर देता है, अन्य अनभ्यस्त या अवुद्धि-गोचर अंशों में नहीं । और संसार--वर्ती प्राणियों को अभिन्न परमाणु में भी यों अन्तर--प्रबोध करा देता है। अर्थात्- परमाणु के सत्त्वगुण में अभ्यास, प्रकरण, बुद्धिपटुता और अभिलाषुकतायें विद्यमान हैं, अतः परमाणु के सत्व--स्वभाव की प्रतीति झटिति होजाती है, किन्तु परमारण के अगत्व या क्षणिकत्व स्वभाव में अभ्यास आदिक नहीं हैं, अत: उसका शीघ्र स्मरण नहीं होपाता है, एक परमारण में भी संसारी जीव स्वभावों करके भेद को समझ बैठते हैं, अतः हम बौद्धों का कहना ठीक है कि अप्रतिभासित परमारण मी अपने में विद्यमान होरहे स्थूल आकार को किसी विभ्रम से दिखला देते हैं, यों बौद्धों के कहने पर तो ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार परमाणों में अरणत्व, क्षणिकत्व, आदि स्वभाव भला सत्व आदि स्वभावों से भिन्न क्यों नहीं होजायंगे क्योंकि निश्चितत्व और अनिश्चितत्व धर्मों का उनमें अध्यास होरहा है जैसे कि सह्य और विन्ध्य पर्वत विरुद्ध धर्मों से अधिरूढ़ होने के कारण भिन्न भिन्न माने गये हैं, परमाण के कुछ धर्मों का निश्चय है, और अन्य स्वभावों का निश्चय नहीं, ऐसी दशा में परमारण के स्वभावों का भेद होजाना अनिवार्य है । बौद्धों के कहने से ही परमाणु में अनेक अंश सध जाते है।
-यदि पुनर्निश्चयस्यावस्तुविषयत्वान्न तद्भावाभावाभ्यां वस्तुस्वभावभेद इतिमतं, तदा कथं दर्शनस्य प्रमाणे तरभावव्यवस्था निश्चयोत्पत्त्यनुत्पत्तिभ्यां विपर्ययोपजननानुपजननाभ्यामिति तद्वयवस्थानुषंगात् ।
यदि फिर बौद्ध यों कहैं कि निश्चय ज्ञान तो वस्तु को विषय नहीं किया करता है, निर्विकल्पक प्रत्यक्ष ही वस्तु को छूता है, निश्चय द्वारा कल्पित अश जाने जाते हैं इस कारण उस निश्चय