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श्लोक-बार्तिक
भी जानने वाला ज्ञान अनाकार है हां उस ज्ञान द्वारा स्थूल आकार वाला एक अवयवी स्पष्ट जान लिया जाता है।
यदि बौद्ध यहां यों कहैं कि परमाणुयें ही चेतन आत्मा में नहीं विद्यमान होरहे भी अति स्थूल प्राकार को किसी एक भ्रान्तिज्ञान से दिखला देती हैं जैसे कि स्थूलदर्शक मोटे काच करके छोटा पदार्थ भी बहुत बडा दीखने लग जाता है, यों कहने पर तो प्राचार्य बौद्ध से पूछते हैं कि वे परमाणुयें किसी न किसी प्रकार प्रतिभासित होचुकी सन्ती उस स्थूल आकार को दिखलावेंगी ? अथवा क्या नहीं प्रतिभासित होरहीं परमाणुयें भी अविद्यमान, स्थूल, ग्राकार को चेतन आत्मामें दिखला देवेंगी ? बतायो । द्वितीय पक्ष अनुसार नहीं प्रतिभासित हुयीं परमाणुयें तो विज्ञान में स्थूल आकार को नहीं दिखलासकती हैं क्योंकि यों मानने पर तो सभी स्थानों पर सभी कालों में, सभी प्रकार, सम्पूर्ण जीवों के, उस स्थूल आकार के दीख जाने का प्रसंग आवेगा क्योंकि परमाणुषों का अप्रतिभास तो सर्वत्र सर्वदा सब जीवों के सुलभतया विद्यमान है । हाँ प्रथम पक्ष अनुसार आप बौद्ध यों कहैं कि वे परमाणुयें सत्त्व, वस्तुत्व, आदि करके प्रतिभासित हो रहीं सन्तीं ही उस स्थूल आकार को दिखला देती हैं, जैसे कि सत्त्व, पदार्थत्व; आदि रूप करके प्रतिभासित होरहे ही केश, धान्य, सूत, आदिक उन कबरी, धान्यराशि, रस्सा आदि स्पल आकारों को दिखला देते हैं । प्राचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि जब आप बौद्ध परमाणुओं को सर्वागीण प्रतिभासित कर चुके हैं, तो परमाणुत्व, सूक्ष्मत्व क्षणिकत्व, स्वलक्षणत्व आदि स्वरूप--करके भी उन परमाणुनों के प्रतिभासित हो चुकनेपन का प्रसंग आयगा किन्तु यह बात अलीक है, किसी भी अग्दिर्शी को परमाणु का परमाणुपन आदि धर्मों करके स्पष्ट प्रतिभास नहीं होपाता है।
सत्यं, तेनाप्रतिभाता एव परमाणवः . एकस्यार्थस्वभावस्य प्रत्यक्षम्य स्वतः स्वयं। कोन्यो न दृष्टो भागः स्याद्वा प्रमाणैः परीक्ष्यते" ॥ इतिवचनात् केवलं तथा निश्चयानु-पत्तेस्तेषामप्रतिभातत्वमुच्यते। " तस्माददृष्टस्य भावस्य दृष्ट एवाखिलो गुणः । भ्रांतेनिश्चीयते नेति साधनं संप्रवर्तते " ॥ इति वचनात् सत्त्वादिनैव स्वभावेन तत्र निश्चयोत्पत्तेरभ्यासप्रकरणबुद्धिपाटवार्थित्वलक्षणस्य तत्कारणस्य भावाद्वस्तुस्वभावात् । वस्तुम्वभावो ह्यष परं प्रति प्रातीतिकानुभवपटीयान् क्वचिदेव स्मृतिवीजमाधत्ते प्रवोधयति चांतरं संसारमिति चेत्, कथमेवं सत्त्वादेरणुत्वादिस्वभावः परमाणुषु भिन्नो न भवेद्विरुद्धधर्माध्यासात् सह्यविध्यवत् ।
___बौद्ध कहते हैं कि आप जैनों का कहना सत्य है उस परमाणुत्व आदि स्वभाव करके नहीं प्रतिभासित होरहे ही परमाणुये उस आकार को दिखलाते हैं यह द्वितीयपक्ष हमको अभीष्ट है, हमारे बौद्धग्रन्थों में इसप्रकार का कथन है कि अर्थ के एकस्वभाव का जब स्वतः ही अपने आप प्रत्यक्ष ज्ञान होगया है, तो उस पदार्थ का कौनसा अन्यभाग देखा जा चुका, भला प्रमाणों करके परितः नहीं देखा गया है ? अर्थात्-पदार्थों में अनेक स्वभाव तो नहीं हैं किसी का एक बार प्रत्यक्ष कर लेने पर उस पदार्थ का पूर्णरूप से प्रत्यक्ष होजाता है, कोई भाग अदृष्ट नहीं रहता है, केवल इतनी बात है कि तिस प्रकार निश्चय की उत्पत्ति नहीं होने से उन परमाणुओं का अप्रतिभासितपना कह दिया जाता है, हमारे ग्रन्थों में यह भी कथन है कि तिसकारण देखे जा चुके पदार्थ के सम्पूर्ण गुण देखे जा चुके समझ