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________________ पंचम-अध्याय RE प्रतीति होजाती है जो कि भ्रान्त है जैसे कि तिस प्रकार के प्रति निकट-वर्ती और परस्पर नहीं सम्बन्धित होरहे केश धान्य, वालुका कण आदि में भी उन आकारों से न्यारे आकारों की प्रतीतिकीजाती है । भावार्थ-न्यारे न्यारे केशों के अति निकट होजाने पर कवरी, वैनी, चुट्ट, जटा, आदि प्रतीतियां होजाती हैं, न्यारे न्यारे अनेक धान्यों को मनुष्य एक धान्य राशि कह देते हैं, इसी प्रकार न्यारे न्या परमाण मों के समीपवर्ती होजाने पर उनको भ्रान्ति वश जन स्कन्ध कह देते हैं । वस्तुतः सूक्ष्म, असाधारण, क्षणिक परमाणुयें ही यथार्थ हैं, कालान्तरस्थायी, स्थूल, साधारण, माना जा रहा अवयवो या स्कन्ध तो वस्तुभूत पदार्थ नहीं है, यहां तक कोई बौद्ध पण्डित कह रहा है। तस्यापि सर्वाग्रहण मवयव्यसिद्धः। परमाणवो हि वहिरंतर्वाऽबुद्धिगोचरा एवातींद्रियत्वात् न चावयवी तदारब्धोभ्युपगतः इति पर्वस्य वहिरंगस्यातरंगस्य चार्थग्रहणं कथं विनिवार्यते । अब प्राचार्य कहते हैं कि उस बौद्ध पण्डित के यहां भी ( हो ) सम्पूर्ण पदार्थों का ग्रहण नहीं होपाता है क्योंकि अवयवी पदार्थ की सिद्धि उन्हों ने नहीं मानी है, तथा वहिरंग और अन्तरंग स्वलक्षण परमाणये अथवा विज्ञानपरमारणयें तो अतीन्द्रिय होने के कारण बुद्धि के विषय ही नहीं हैं और उन परमाणों से बनायागया अवयवी पदार्थ बौद्धों ने स्वीकृत नहीं किया है, इस प्रकार सम्पूर्ण वहिरंगपदार्थ और अन्तरंग पदार्थों का ग्रहण नहीं होसकना भला किस प्रकार दूर किया जा सकता है ? अर्थात्-बौद्धों के यहाँ किसी भी पदार्थ का ज्ञान नहीं होपाता है। अथ केचिन्संचिताः परमाण व एव प्रत्याशेिषादिदिर ज्ञानपरिच्छे धम्मावा जायंते तेषां ग्रह सिद्धेर्न सर्वाग्रहणमिति मतं तदपि न ममीचीनं, कदाचित्क्वचिन्कस्यचित्परमाणुप्रतीत्यभावात् । एकाहि ज्ञानसन्निवेशी स्वधियानाकारः परिस्फुटमवभासते । परमाणव एव चैतनात्मन्यविद्यमानमायाकारं थव यांसं कुतश्चिद्विभ्रमाद्दर्शातीति चेत्, कथंचित्प्रतिभातास्ते तमुपदर्शयेयुरप्रतिभाता वा ? न तावर प्रतिभाताः सर्वत्र सर्वदा. सर्वथा सर्वस्य तदुपदर्शनप्रसंगात, प्रतिभ ता एक ते तमुपदशयात सत्यादिनाकंशादिवादात चेन्न । परमाणुत्वादिनापि तेषां प्रतिमातत्वप्रसंगात् । अब बौद्ध यों कहते हैं कि हम परमाणुमों की सदा उत्पत्ति मानते रहते हैं कोई कोई एकत्रित हुये परमाणु ही स्वकीय कारणों की विशेषता से इन्द्रियजन्य ज्ञानों करके जानने योग्य स्वभाव वाले उपज जाते हैं, उनका ग्रहण होना सिद्ध है इस कारण सम्पूर्ण पदार्थों का अग्रहण नहीं हुआ, कतिपय दृष्टव्य परमाणुओं का इन्द्रियों द्वारा ग्रहण होचुका है, बौद्धों का यह मत है । अब प्राचार्य कहते हैं कि बौद्धों का वह मन्तव्य भी समीचीन नहीं है क्योंकि कभी भी, कहीं भी, किसी भी, अल्पज व्यक्ति को परमाणुओं की प्रत्यक्ष प्रतीति होने का अभाव है । जब कि एक ही स्कन्ध बेचारा ज्ञान में स्थूल रचनाओं को धारने वाला प्रतीत होरहा है, जो कि अपने को जानने वाली बुद्धि करके अनाकार होरहा पूर्ण स्पष्ट रूप से प्रतिभास रहा है अर्थात्-अर्थों के प्रतिविम्बों के नहीं धाररहा और स्व को
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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