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________________ श्लोक-वातिक संख्येयपरमाएवारब्धानामनेकधा-स्कंधानामसंख्यातानंतानंतपरमाण्वारब्धाना चे संसिद्धः पुद्गलानां स्युरेवं संख्येयाश्चासंख्येयाश्चानंताश्च प्रदेशास्तत्वतः सकल वाधवैधुर्यात् । संख्याते परमाणों करके प्रारम्भे गये अनेक प्रकार के स्कन्धों की भले प्रकार प्रमाणों से सिद्धि होरही है तथा असख्यात परमाणओं या अनन्त-परमाणों अथवा अनन्तानन्त परमाणों से बनाये जा चुके अनेक प्रकारके पौद्गलक स्कन्धो को भला तिद्धि होरहा है, इस कारण से पुद्गों के इस प्रकार संख्येय और असंख्येय तथा अनन्त प्रदेश होसकते हैं क्योंकि तात्त्विक रूप से सम्पूर्ण वाधानों का रहितपना देखा जाता है अर्थात् वाधा-रहित प्रमाणों से जिसकी सिद्धि है उस पदार्थ का सद्भाव अवश्य स्वीकार करने योग्य है। जैसे कि स्वकीय या पर के सुखदुःखों का अस्तित्व जान लिया जाता है। ननु च स्कंधस्य ग्रहणं तदारभकावयवग्रहण पूर्वकं तदग्रहणपूर्वकं वा ? प्रथमपक्षेऽनंतशः परमाणुनां तदवयवानामतींद्रियत्वादग्रहणे स्कंधाग्रहणमिति स ग्रहण मवयव्यसिद्धः, द्वितीयपक्षेत्र सकलावयवशून्येपि देशेऽत्रयविग्रह "प्रसगः कतिपयावयवग्रहणपूर्वकेपि म्कं - ग्रहणे सर्वाग्रहणमेव कतिपयायगना प्यनंनशः परमाणुनां व्यवस्थानाचेषां च ग्रहणासंभवात् । ततो न परमार्थतः स्कंबसंसिदिः अनाद्यविद्यावशादत्यासन्ने संसृष्टेषु वहिरंतश्च परमाणुषु तदाकारप्रतीतेः तादृशकेशादिष्वप्यन्यांकारप्रतीतिवदिति कश्चित् यहाँ कोई अवयवी को नहीं मानने वाला बौद्ध-वादी शंका करता हुआ स्वपक्ष का अवधारण करता है कि स्कन्ध का ग्रहण क्या उसको बनाने वाले अवयवों के ग्रहणपूर्वक होगा ? अथवा क्या उसके प्रारम्भक अवयवों का पूर्व में ग्रहण नहीं कर झटिति अवयवी का ग्रहण होजावेगा? बतायो । प्रथम पक्ष ग्रहण करने पर उस स्कन्ध के अवयव होरहे कई वार अनन्ते अनन्ते परमाणुओं का अतीन्द्रियपना होने के कारण नहीं ग्रहण होने पर स्कन्ध का ग्रहण नहीं होसकता है, इस कारण सम्पूर्ण पदार्थों का ग्रहण नहीं होसका क्योंकि अवयवी पदार्थ की सिद्धि नहीं हो सकी है। अर्थात्परमाणुभूत अवयव तो तीन्द्रिय हैं और अवयवीको हम बौद्ध मानते नहीं हैं, ऐसी दशा में किसी भी पदार्थ का ग्रहण नहीं हुआ। यहां दूसरा पक्ष लेने पर तो यानी-पूर्व में प्रवयवोंका ग्रहण नहीं होते हुये भी स्कन्ध का ग्रहण होजाता है यो मानने पर सम्पूर्ण अवयवों से रीते होरहे भी देश में अवयवी के ग्रहण होजाने का प्रसंग आवेगा। यदि जैन या नैयायिक यों तीसरा पक्ष उठावें, कितने ही एक थोड़े से अवयवों का ग्रहण पूर्व में होने पर पुनः स्कन्ध का ग्रहण होजाता है तो भी हम बौद्ध कहते हैं कि यों मानने पर भी सभी अवयवों या अवयवियों का अग्रहण ही होगा क्योंकि स्कन्ध के कतिपय अवयव होरहे भो तो अनन्ते परमाणों की आप जैनों के यहाँ व्यवस्था की गयी है, अतः कितने ही एक अवयवभूत अनन्ते परमागों का ग्रहण करना असम्भव है, तिस कारण वास्तविक रूप से स्कन्ध की समीचीन सिद्धि नहीं होसकती। हाँ अनादि काल से लगी हुई प्रविद्या के बल से जीवों को अति निकटवर्ती हो रहे किन्तु एक दूसरेके साथ नहीं ससगित हये वहिरंग परमारण और अन्तरंग परमाणुमोंमें उस स्कन्ध माकार की
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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