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________________ १०२ श्लोक-वर्तिक के सद्भाव और प्रभाव करके वस्तु के स्वभावों में भेद नहीं होसकता है। प्राचार्य कहते हैं कि वौद्धों का यदि यह मत है तब तो निश्चय की उत्पत्ति करके निर्विकल्पक प्रत्यक्ष के प्रमाणपन और अप्रमाएपन की व्यवस्था भला किस प्रकार होगी ? यों तो विपर्यय ज्ञान की उत्पत्ति और अनुत्पत्ति करके भी दर्शन के उस प्रमाणपन या अप्रमाणपन की व्यवस्था होजाने का प्रसंग अावेगा। भावार्थ--वौद्धों ने निविकल्पक प्रत्यक्ष में निश्चय ज्ञान की उत्पत्ति होजाने से प्रमाणपना स्वीकार किया है, और जिस देखे हये भी विषय में पश्चात् निश्च य उत्पन्न नहीं हया है, उस दर्शनका अप्रमाणपना व्यवस्थित किया है जैसे कि नीलस्वलक्षण का प्रत्यक्ष कर पीछे यह नील ही है, ऐसा निश्चय उपज गया तब तो उस निविकल्पक प्रत्यक्ष की प्रमाणता मानी जायगी और यदि स्वलक्षणत्व या क्षणिकत्व का पीछे निश्चय ज्ञान नहीं उपज सका है तो उनका निर्विकल्पक दर्शन हो चकने पर भी उस दर्शन की अप्रमाणता ही समझी जाती है. इसपर हमें यह कहना है कि दर्शन में प्रमाणता और अप्रमारणता के व्यवस्थापक निश्चय को वस्तु का निश्चय करने वाला नहीं माना जाय यह आश्चर्य है, यदि वस्तु को नहीं विषय करने वाले झूठे ज्ञानों को प्रमाणता या अप्रमाणता का व्यवस्थापक मान लिया जायगा तो विपर्ययज्ञान या संशय भी प्रमाणपन और अप्रमाणपन की व्यवस्था करा या अपराधी पुरुष भो न्यायकी गद्दी पर बैठ कर अण्ट सण्ट शासन करने लगजावेगा कौन ।कता है ? ___दर्शनप्रामाण्यहेतुर्यथार्थ निश्चय ए। दृष्टार्थाध्यवसायित्वान्न विपर्ययः संशयो वा तद्विपरीतत्वादिति चेद्व्याहतमेतत् स्वलक्षणानालम्बनश्च निश्चयो दृष्ट र्थाध्य सायी चति ततः स्वलक्षणाध्यवसायी स्वलक्षणालंवन एवेति वस्तुविषयो निश्चयोन्यथानुपपत्तेः सिद्धः । एवं च तद्भावामावाभ्यां वस्तुस्वभावभेदोवश्यंभावीति सत्त्वद्रव्यत्वादि-स्वभावेन निश्चीयमानाः परमाणवो अणुत्वादिस्वभावेन चाऽनिश्चीयमाना नानाम्वभावाः सिद्धा एव । केशादित्वेन निश्चीयमानाः प्रविरलत्वादिना चाऽनिश्चीयमानाः प्रतिपत्तव्याः। सर्वथा तदनिश्चर्य तत्र विभ्रमाभावप्रसंगात् तद्भावे अतिप्रसक्तेः। बौद्ध कहते हैं कि दर्शन में प्रमाणपन का कारण तो यथार्थनिश्चय ही है क्योंकि निविल्पकप्रत्यक्ष द्वारा देखे जा चुके अर्थ का अध्यवसाय ( निर्णय ) करने वाला निश्चय ज्ञान है, विपर्ययज्ञान अथवा संशय ज्ञान तो निविकल्पक दर्शन में प्रमाणता के सम्पादक नहीं हैं क्योंकि वे उससे विपरीत हैं, यानी दृष्ट अर्थ का अध्यवसाय नहीं करा सकते हैं । यों बौद्धोंके कहने पर तो हम जैन कहते हैं कि ह कहना परस्पर व्याघात दोष युक्त है, एकान्त-वादी बौद्धो को ऐसी बात कथमपि नहीं कहनी चाहिये । एक ओर निश्चय को स्वलक्षण को नहीं विषय करने वाला कहा जाता है, और निश्चय को दृष्ट अर्थ का अध्यवसाय करने वाला माना जाता है, इसमें उसी प्रकार व्याघात दोष आता है, जैसे कि अपनेको अज्ञानी मानता हुआ कोई पुरुष स्वयंको सर्वज्ञ कहबैठे। देखो जो निश्चयज्ञान तुम बौद्धों के यहाँ वस्तुभूत माने गये स्वलक्षण को पालम्बन नहीं करेगा वह दृष्ट अर्थ का अध्यवसाय करने वाला नहीं है, और जो ज्ञान दृष्ट अर्थ का अध्यवसाय करता है, वह स्वलक्षण को विषय अवश्य करता है।
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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