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________________ श्लोक-वार्तिक आकाश द्रव्य का अनन्तप्रदेशीपना निर्दोष आगम प्रमाण से जानने योग्य है, तथा निदेषि हेतु से उत्पन्न हये अनुमान प्रमाण द्वारा भी आकाश का अनन्त पदेशीपना विशेषरूप से निश्चित कर लिया जाता है, अथवा सर्वज्ञ जीवों करके भो अनन्त प्रदेशीपना विषय करने योग्य है, इस प्रकार आगम, अनुमान, और प्रत्यक्ष प्रमाणों करके जाना जा रहा आकाश अनन्तप्रदेशों के परिमाण को धार रहा है । यद्विज्ञानपरिच्छेद्यं तत्सांतमिति योब्रवीत्। तस्य वेदो भवादिर्वा नानंत्यं प्रतिपद्यते ॥ ५ ॥ यहां कोई कुतर्क उठाता है कि जो विज्ञान करके जानने योग्य है, वह सान्त ही है, अनन्त नहीं। प्राचार्य कहते हैं कि इस प्रकार जो कटाक्ष कह चुका था उस पण्डितके यहां वेद अथवा महेश्वर, काल, बीन, वृक्ष सन्तान प्रादिक पदार्थ फिर अनन्तपन को नहीं प्राप्त होसकेंगे । अर्थात्-ज्ञान से परिच्छेद्य वेद है, ईश्वर को भी पागम ज्ञान से जाना जाता है, युक्तियों से सन्तान का ज्ञान होजाता होकर भी अनन्त माने गये हैं। इसी प्रकार प्रकाश द्रव्य भी परिच्छे होकर अनन्त होसकता है, ये बात दूसरी है कि अनन्त को अनन्तपने करके ही जाना जायगा, सान्तपने करके नहीं। यों कुतर्की का सान्तत्व को साधने में दिया गया " विज्ञान परिच्छेद्यत्व हेतु व्यभिचारी हया"। ___ स्वयं वेदस्येश्वरस्य पुरुषादेवः अनाद्यनन्तत्वं कुतश्चित्प्रमाणात् परिच्छिदन्नपि तत्सादिपर्यन्तत्वं प्रतिक्षिपन्नाकाशस्यानुमान गमयो।गप्रत्यक्षैः परिच्छिद्यमानस्यानंतत्वं प्रतिक्षिपतीति कथ स्वस्थः ? प्रमाणस्य यथावस्थितः स्तुपरिच्छेदनस्वभावत्वादनंतरयानं त्वेनैव परिच्छेदन को विरोधः स्यात् संख्यातासंख्यातादेस्तथा परिच्छेदनवत् । ततः सूक्तमाकाशस्यानताः प्रदेशा इति । वेद का, ईश्वर का, अथवा प्रात्मा, प्रकृति, आदि का, अनादि अनन्तपना किसी भी प्रमाण से स्वयं जान रहा सन्ता भी और उन वेद आदि के सादि सान्तपन का खण्डन कर रहा सन्ता भी यह वादी फिर अनुमान, पागम, और सर्वज्ञप्रत्यक्ष इन प्रमाणों करके जाने जा रहे आकाश के अनन्तपन का खण्डन कर देता है, इस प्रकार कहने वाला वादी स्वस्थ किसप्रकार कहा जासकता है । किसी ज्ञेय पदार्थ को अनन्त माने और दूसरे ज्ञय पदार्थ को यो हो मनमाना सान्त कह दे, वह वादी उन्मत्त ही कहा जा सकता है । भाई बात यह है कि प्रमाण का स्वभाव तो जो पदार्थ-जैसे व्यवस्थित है, उस वस्तु का उसी अन्यून, अनतिरिक्त, रूप से ज्ञान कर लेना है, अनन्त पदार्थ का अनन्तपने करके ही ज्ञान करने में भला कौन सा विरोध पाजायगा ? अर्थात्-कोई नहीं। जिस प्रकार सख्यात या असंख्यात आदि की तिसप्रकार संख्यातपने या असंख्यातपने प्रादि करके ठीक परिच्छित्ति हो जाती है, अथवा असंख्यातासंख्यात की असंख्यातासंख्यात रूप करके ज्ञप्ति है, उसी प्रकार आकाश के प्रदेशों का अनन्तानन्तरूप से ज्ञान होजाता है किसी स्यूलवुद्धिवाले पुरुष को यदि कोई सूक्ष्म पदार्थ या कठिन पदार्थ समझ में नहीं आकर अज्ञेय होरहा है, फिर भी उस अज्ञेय पदार्थ को अज्ञय--पने करके ज्ञेय कह सकते हैं, केवलज्ञानके अविभागप्रतिच्छेद सबसे बड़ी उत्कृष्ट अनन्तीनम्न नामकी संख्या वाले हैं,
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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