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________________ ६५ पंचम - अध्याय किसी भी वादी, प्रतिवादी, विद्वान् को इष्ट नहीं है, इस कारण निरन्तरपन के पक्ष का परित्याग कर लोक धातुओं को अन्तरसहित ही स्वीकार कर लेना अच्छा है । सूक्ष्मदृष्टि से विचार करने पर प्रत्येक परमाणु को अन्तर सहित कहना उचित पड़ता है, प्रत्येक प्रत्येक परमाणु अनुसार वे लोकधातुयें अन्तराल सहित हैं और वह अन्तर यानी व्यवधान ही तो आकाश है, या वह अन्तर आकाश ही तो है, इस प्रकार अनन्त लोक - धातुओंों को मानने वाले वादी के उक्त मन्तव्य का खण्डन कर देने से यह प्राप्त होता है, कि एक आकाशद्रव्य अनेक प्रदेशों में फैल रहा अनन्तानन्त प्रदेशों वाला है । आलोकतमःपरमाणुमात्रमंतरमिति चेन्न, आलोकतमः परमाणुभिरपि सान्तरैर्भवितव्यं । तन्नैरंतर्ये प्रतिपादितदोषानुषंगात् । तदंतराख्याकाशप्रदेश) एवेत्यवश्यंभावि नमोऽनं 1 प्रदेश | यदि कोई यों कहै कि लोकधातुओं या परमाणुत्रों को न्यारा न्यारा करने के लिये अन्तरसहित मानना ठीक है किन्तु वह अन्तराल श्राकाश पदार्थ स्वरूप नहीं मानकर केवल अवश्य माने जा हे लोक. अन्धकार, और परमाणुस्वरूप ही अन्तर माना जाय अथवा प्रकाश होने पर आलोक के परमाणुओं स्वरूप और अन्धकार में तमः के परमाणुओं स्वरूप वह अन्तराल मान लिया जाय व्यर्थ में प्रत्यन्तपरोक्ष आकाश द्रव्य के मानने की आवश्यकता नहीं दीखती है । ग्रन्थकार कहते हैं, कि यह तो नहीं कहना क्योंकि आलोक के और अन्धकार के परमाणु भी तो खण्ड, खण्ड, होकर न्यारे न्यारे द्रव्य हैं, उनको भी अन्तरालसहित होना चाहिये तभी उन छोटे छोटे परमाणुओं के स्वतंत्र द्रव्यपन की रक्षा होसकती है, यदि उन प्रालोक परमाणुओं या अन्धकारपरमाणुओं का निरन्तरपना स्वीकार किया जायगा तो अभी कहे जा चुके दोषों का प्रसंग होगा । अर्थात् - एक देशकरके निरन्तरपना मानने पर अनेक परमाणुओं का सावयवपना माननापड़ेगा और सर्वात्मना निरन्तरपना ( संसर्ग ) मानने पर केवल परमाणु के वरावर जगत् हुआ जाता है, जोकि किसी को भी इष्ट नहीं है, अतः लोकधातुओं अथवा प्रत्येकपरमाणुत्रों तथा आलोकपरमाणुयें और तमः परपाणयें उन सब के अन्तर होरहे आकाश प्रदेश ही हैं, इस कारण लोक के बाहर अनन्तानन्त प्रदेशों वाला आकाश द्रव्य अवश्यंभावी है, लोक के बाहर एक अखण्ड प्रकाश द्रव्य अनन्तानन्त क्षेत्र में फैल रहा है। घी से भरी हुई कढ़ाई में दसों पूड़ियों को डाल देने पर उन पूड़ियों के सब ओर फैल रहा घृत जैसे उनके परस्पर में अन्तर है, उसी प्रकार अनेक पदार्थों का अन्तर आकाश द्रव्य होसकता है, हाँ अन्तरालरहित पदार्थों में आकाश का अन्तर मानना कोई प्रयोजनसाधक नहीं है, भले ही उन अखण्ड, अच्छिद्र, स्कन्ध आदि पदार्थों में भीतर वाहर सब ओर आकाश द्रव्य श्रोत पोत घुस रहा है या वे पदार्थ उस आकाश में सर्वाङ्ग डूब रहे हैं । श्रागमज्ञानसंवेद्यमनुमानविनिश्चितं । सर्वज्ञर्वा परिच्छेद्यमप्यनंतप्रमाणभाक् ॥ ४ ॥
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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