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________________ १४ श्लोक-वार्तिक लोक का प्रभाव माना गया भाव धर्म स्वभाव होरहा पदार्थ किसी रूप आदि चौवीस गुण स्वरूप भी नहीं है, अथवा उत्क्षेपण आदि पांच कर्म स्वरूप भी नहीं है, इसी प्रकार वैशेषिकों के यहाँ माने गये सामान्य अथवा विशेष पदार्थ--स्वरूप भी नहीं है, क्योंकि उन गुण आदि के आश्रय होरहे किसी भी द्रव्य को वहाँ स्वीकार नहीं किया गया है, स्वकीय आधार के विना गुण आदि किसका आश्रय पाकर ठहरें ? । तब तो परिशेषन्याय से वह कोई द्रव्य ही विचारा जा सकता है। प्रसंग--प्राप्तों का निषेध कर चुकने पर बच रहे परिशिष्ट पार्थ की व्यवस्था होजाती है, अतः वही द्रव्य हम स्याद्वादियों के यहां आकाश माना जा रहा है, अर्थात् -लोक के बाहर पृथिवी, जल आदि तो हो नहीं सकते हैं, क्योंकि वहां उनके ठहरने या गमन का हेतु अधर्म या धर्म द्रव्य नहीं है, इस कारण से वहां जीव द्रव्य भी नहीं है, जहां पुगद्ल, जीव, धर्म अधर्म. और कालद्रव्य पाये जाते हैं वह तो लोक ही है, लोक से बाहर सब ओर से अवधिरहित होरहा आकाशद्रव्य है, इस कारण आकाश के अनन्तानन्त प्रदेशों की सिद्धि होजाती है, यों आकाश की ज्ञप्ति और आकाश के प्रदेशों की सिद्धि कर दी गयी है। परेषां पुनरनन्ता लोकधात वः संतोपि यदि निरतगस्तदा अंतरालप्रतीनि म्यात सर्वथा तेषां निरंतरत्वे वैकं लोकधातुमात्रं स्यात् परेषां लोकधातूनां तत्र नुप्रवेशात : देशेन नैरन्तये सावयवत्वं तदवयवेनापि तदवयवांतरैः सर्वात्मना नैरंतर्ये नदेकार यवमत्र म्यात, तदेकदेशेन नैरन्तयें तदेव सावयवन्वमेग्मनन्तपरमाणुनां सर्वात्मना नैरन्तयें परमाणुमात्रं जगद्भवेत तदेकदेशेन नैरंतये सावयवत्वं परमाणूनां । तन्नालिष्टं इति मांतरा एव लोकघात : प्रतिपरमाणु वक्तव्याः । तदन्तर एवाकाशमेवोक्तव्यापादनादनंतप्रदेशमायातं । दूसरे वादी पण्डितों के यहाँ फिर लोकधातुयें अनन्त होरहे सन्ते भी यदि वे अन्तररहित हैं. तब तो उनके मध्य में पड़े हुये अन्तराल की प्रतीति नहीं होनी चाहिये । दूसरी बात यह है कि सर्वथा उनका अन्तररहितपना माननेपर केवल एक ही लोकधातु हो सकेगा, अनेक लोक कथमपि नहीं माने जासकेंगे क्योंकि अन्तररहित अवस्था में अन्य सम्पूर्ण लोक धातुओं का उस एक ही लोक में अनुप्रवेश होजायगा । जैसे कि एक लोक में पड़े हुये प्रान्त या देशों का उसी लोक में अन्तर्भाव होजाता है, यदि लोकों का परस्पर में एक देश करके अन्तर रहितपना माना जायगा तब तो लोक सावयव होजायंगे क्योंकि अवयवों से सहित होरहे पदार्थों का एकदेश या प्रान्तदेश अथवा मध्यदेश करके निरंतरपना या सान्तरपना सम्भवता है। तथा उस अवयवी के एक देश होरहे अवयव करके उसके अन्य अवयवों के साथ सम्पूर्ण रूप से यदि निरंतरपना माना जायगा तो वह पूरा अवयवी केवल एक अवयव-प्रमाण (वरोवर) होजायगा। इसी प्रकार उस छोटे अवयवी स्वरूप अवयव के एक देश करके अन्तराल का प्रभाव माना जायगा तो फिर वही अवयव-सहितपना प्राप्त होता है । इस प्रकार अन्त में जाकर सब से छोटे चरमावयव होरहे अनन्त परमाणुओं का सम्पूर्ण स्वरूप से निरन्तरपना स्वीकार करने पर यह जगत् केवल एक परमाणु-वरोवर होजायगा । यदि परमाणु के वरोवर उस जगत् का फिर एक देश करके अन्तरालाभाव माना जायगा तो परमाणुओं को अवयव से सहितपन का प्रसंग प्राप्त होता है, जो कि
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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