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पंचम-अध्याय
है। पृथिवी. जल, आदिस्वरूप भी वह नहीं है, क्योंकि ये सब लोक के भीतर ही हैं। लोक से बाहर का भाव पदार्थ रूप, रस, आदि गुण-स्वरूप भी नहीं होसकता है क्योंकि उस गुण के आश्रयभूत किसी भी एक पृथिवी आदि द्रव्य को वहां स्वोकार नहीं किया गया है। इसी प्रकार कर्म ( क्रिया ), सामान्य (जाति) प्रादि के सम्भवने का भी वहाँ विचार नहीं किया जा सकता है क्योकि उनके आश्रयभूत हो रहे द्रव्य का अभाव है, द्रव्य के विना ये विचारे कहां ठहर पायेंगे ? । हाँ पृथिवी, वायु, आत्मा, गुण, आदि का निषेध करते हुये " परिशेवन्याय " से जो कोई द्रव्य वहां जगत् के बाहर ठहर पायेगा वही तो हम स्याद्वादियों के यहां आकाश द्रव्य प्रतिष्ठित है, '' प्रसक्तप्रतिषेधे परिशिष्ट -संप्रत्ययहेतुः परिशेष: " क्योंकि प्रसंग-प्राप्त पदार्थों का युक्तियों से निषेध कर चुकने पर अन्त में जो परिशिष्ट (बच) रह जाता है, उसकी “परिशेषन्याय" अनुसार व्यवस्था कर दी जाती है । अर्थात्-जगत् के बाहर कोई पृथिवी आदि द्रव्य नहीं है, केवल आकाश द्रव्य है ।
अनंता लोकधातवः इत्याकाशत्ववादिनां दर्शनमयुक्तं प्रमाणाभावात । स्वभावविप्रकृष्टानां भावाभावनिश्चयासंभवात संभवे वामतः क्षतिप्रसंगात् तदागमस्य प्रमाण भूतस्यानभ्युपगमात् । ततः सावधिरेव लोको व्यवतिष्ठते तस्य च स्वतो वहिः समंतादभावस्तावत्सिद्धः स च नीरूपो न युज्यते प्रमाणाभावात् । भा धर्मर भावो न गुणः, कर्म, सामान्यं, विशेषो वा, कस्यचिद्रव्यस्य तदाश्रयस्थानभ्युपगम त् परिशेषाद्रव्यमिति विभाव्यते । प्रसक्तप्रतिषेधे परिशिष्टव्यवस्थितेः तदस्माकमाकाशं सर्वतोऽवधिरहितमित्यनंतप्रदेशसिद्धिः।
लोक नामक धातुयें अनन्त हैं अर्थात्-लोक तीन, सौ, हजार लाख, आदि इतने ही नहीं हैं किन्तु संख्यात, असंख्यात, से भी बढ़ कर अनन्त हैं। प्राचार्य कहते हैं कि इस प्रकार प्राकाशतत्व को मानने वालों का दर्शन अयुक्त है क्योकि इस में कोई प्रमाण नहीं है, अथवा आकाश को तत्व मानने वालों के यहां लोकों को भी अनन्त कहने वाला दर्शन प्रयुक्त है, इस विषय का कोई प्रत्यक्ष या अनमान अथव आगम प्रमाण नहीं है । स्वभाव से विप्रकृष्ट ( व्यवहित ) होगहे चाहे किन्हीं भी अतीन्द्रिय पदार्थों के भाव या अभाव का निश्चय करना असम्भव है, फिर भी चाहे किसी भी अतीन्द्रिय पदार्थ का सद्भाव मान लिया जायगा तो सभी दार्शनिकों के यहाँ स्वतः ही क्षति होने का प्रसंग आजावेगा, चाहे कितने भी मन--माने सूक्ष्म पदार्थ मान लिये जावेंगे और चाहे किसी भी परमाणु, आकाश, कर्म, काल द्रव्य प्रादि स्वभावविप्रकृष्ट पदार्थों का प्रभाव कर दिया जा सकता है। प्रत्यक्ष या अनुमान प्रमाण से तो अनन्त लोकों की सिद्धि नहीं होसकती है, और जिस आगम में लोक अनन्त लिखे हुये हैं, उस आगम को प्रमाणभूत स्वीकार नहीं किया गया है, तिस कारण से मर्यादासहित ही लोक व्यवस्थित होता है।
उस पञ्च द्रव्य समुदाय या षट् द्रव्यसमूह--स्वरूप मर्यादित लोक का अपने से वाहर सब मोर अभाव तो सिद्ध ही है किन्तु वह लोक का प्रभाव निःस्वरूप या प्रसज्यपक्ष अनुसार तुच्छ अभाव रूप माना जाय यह तो उचित नहीं है क्योंकि इस विषय में कोई प्रमाण नहीं है। इस परिमित लोक के बाहर भी कोई भाव-पदार्थ ठहर सकता है, पर्युदास नामक प्रभाव के अनुसार वह लोक के वाहस