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________________ श्लोक-वर्तिक छहों अोर से या सब ओर से आकाश के प्रदेश तो अनन्तानन्त ही हो सकते हैं (प्रतिज्ञा) तीनों लोक से बाहर नियत प्रान्त का प्रभाव होने से ( हेतु )। अन् था यानी लोक से बाहर प्रान्त का प्रभाव नहीं मानने पर तो उस आकाश की गति यानी जप्ति नहीं होसकेगी। वैशेषिकों के मत अनुसार सर्वगतपना भी नहीं सम्भवेगा, अल्प देशों में वर्त रहा आकाश अल्पगत बन बैठेगा। अनंतप्रदेशमाकाशं लोकत्रयाद्वहिः समंततः प्रांताभावात् यन्नानं प्रदेशं न तस्य ततो वहिः समन्ततः प्रांताभावो यथा परमाणवादेः इत्य यथानुपत्तिलक्षण हेतुः साध्य साधयत्येव । ततो वहिः एमततः प्रानाभावस्य मावे पुकाशम्य गत्यभाव प्रसंगात् मावो कथमाकाशस्य गतिरित्याह । आकाश द्रव्य ( पक्ष ) अनन्त प्रदेशवान् है (साध्य) तीनों लोक से बाहर सब ओर से प्रान्त का प्रभाव होजाने से ( हेतु )। जो अनन्त प्रदेश वाला नहीं है, उसका उस तीनों लोक से बाहर सब ओर प्रांत का प्रभाव नहीं पाया जाता है जैसे कि परमाणु, घट, पट, आदिका प्रांताभाव नहीं है, (व्यतिरेक दृष्टान्त । इस प्रकार अन्यथानुपपत्ति नामक असाधारण लक्षण से युक्त होरहा हेतु अपने साध्य को साध ही देता है। उस लोकत्रय से बाहर समन्ततः आकाश के प्रान्ताभाव का अभाव माना जायगा यानी प्रान्तभाग मान लिये जांयगे तो फिर याकाश द्रव्य की ज्ञप्ति होने के अभाव का प्रसंग आजायगा। कोई प्रश्न करता है कि लोक से बाहर आकाश के प्रान्तों के अभाव का सद्भाव मानने पर भी भला आकाश की ज्ञप्ति किस प्रकार होजायगी? बताप्रो, ऐसी जिज्ञासा होने पर प्राचार्य महाराज उत्तर वातिक को कहते हैं। जगतः सावधेस्तावद्भावों वहिरवस्थितिः। संतानात्मा न युज्येत सर्वथार्थक्रियाक्षमः ॥२॥ न गुणः कस्यचित्तत्र द्रव्यस्थानभ्युपायतः । तदाश्रयस्य कर्मादेरपि नैवं विभाव्यते ॥ ३ ॥ द्रव्यं तु परिशेषात्स्यात्तन्नभो नः प्रतिष्ठितं । प्रसक्तप्रतिषेधे हि परिशिष्टव्यवस्थितिः॥४॥ सब से प्रथम यहाँ विचार करना है कि चराचर वस्तुओं का पिण्ड होकर यह जगत् मर्यादासहित है, चाहे तीन लोक माने जांय या सात भुवन अथवा चौदहभुवन प्रादि माने जांय इनकी अवधि अवश्य मानी जायगी। अवधिसहित इस जगत् से बाहर भी कोई भावात्मक पदार्थ अवस्थित है जो कि कल्पित सन्तानस्वरूप तो नहीं उचित है, क्योंकि अर्थक्रिया करने में वह समर्थ है, कल्पित पदार्थ सभी प्रकार से अर्थक्रिया को नहीं कर सकता है, “ नहि मृण्मयो गौर्वाह--दोहादावुपयुज्यते " अतः वह भाव--पदार्थ बौद्धों के यहां माने गये अनुसार कल्पित सन्तान स्वरूप नहीं माना जा सकता
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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