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पंचम - अध्याय
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रहे द्रव्य ही में पायी जा सकती है, आकाश के सर्वदेशवर्ती द्रव्य में क्रिया नहीं होपाती है। क्योंकि ऐसा कोई क्रियावान् द्रव्य ही नहीं है ।
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एतेन मेषयोरुभयकर्मजः संयोगो विभागश्चाकाशस्याप्रदेशत्वे न घटत इति निवे - दितं, क्रियानुपपत्तिश्च तस्याः देशांतरप्राप्तिहेतुत्वेन व्यवस्थितत्वात् देशांतरस्य चाऽसंभवात् । तत एव परत्वापरत्व पृथक्त्वाद्यनुपपत्तिः पदार्थानां विज्ञेया । तत्सकल मभ्युपगच्छतांजसा सांशमाकाशादि प्रमाणयितव्यं ।
इस उक्त कथन करके इस बात का भी निवेदन कर दिया जा चुका समझलो कि दो मेंढानों का दोनों की क्रियाओं से उपजा संयोग अथवा विभाग ही ग्राकाश को प्रदेशरहित मानने पर नहीं घटित हो पाता है । दूसरी बात यह है कि आकाश को निरंश मानने पर पृथिवी, जल, तेज, वायु, और मन इन में से किसी भी द्रव्य की कोई क्रिया नहीं बन सकती है, क्योंकि वह क्रिया तो अन्य देशों की प्राप्ति का कारण होकरके व्यवस्थित होरही है । अर्थात् — जब आकाश के प्रदेश नहीं हैं, तो प्रकृत देश से दूसरे देशों में प्राप्ति कराने वाली क्रिया कथमपि नहीं बन सकती है। किस देश से कौनसे दूसरे देशों पर पदार्थ को रक्खे ? आकाश को निरंश मानने वालों के यहाँ देशान्तर का तो असम्भव है । तथा तिस ही कारण से यानी देशान्तरोंका असम्भव होने से पदार्थोंके परत्व, अपरत्व, पृथक्त्व, द्रवत्व, गुरुत्व आदि की प्रसिद्धि होना समझ लेना चाहिये अर्थात् - प्रकाश के प्रदेश होने पर ही सहारनपुर से काशी की अपेक्षा प्रयोध्या पर है, पटना पर है, यों पटनासम्बन्धी परत्व और अयोध्या सम्बन्धी अपरत्व गुरण बन सकते है अन्यथा नहीं ।
प्रदेश आकाश के देश, देशान्तर मानने पर ही पदार्थों का एक दूसरे से पृथग्भाव बनता है, वस्त्र से मैल पृथक होगया, अंगुली से नख को पृथक कर दिया, ये सब श्राकाश के अनेक प्रदेश मानने पर ही सम्भवते हैं । वैशेषिकों ने आद्य स्पन्दन ( बहना ) का असमवायी कारण द्रवत्व गुरण माना है, और श्राद्य पतन का समवायी - कारण गुरुत्व गुण स्वीकार किया है, जब श्राकाश के प्रदेश ही नहीं हैं तो कौन द्रव्य कहां से बह कर कहाँ जाय ? और भारी पदार्थ कहां से गिर कर कहां 'पडे ? समझ में नहीं आता है । तिसकारण उन संयोग, विभाग, क्रिया, परत्व, अपरत्व, पृथक्त्व प्रादि सम्पूर्ण सुव्यवस्थाओं को स्वीकार करने वाले वैशेषिक या अन्य वादी करके आकाश, आत्मा, आदि द्रव्यों को प्रतिशीघ्र प्रामाणिक मार्ग अनुसार सांश स्वीकार कर लेना चाहिये ।
कुतः पुनराकाशस्यानंताः प्रदेशा इत्यावेदयति ।
महाराज फिर यह बताओ कि आकाश के अनन्त प्रदेश भला किस ढंग से सिद्ध कर लिये जाते हैं ? सम्भव है कि प्रदेश सिद्ध करदिये गये आकाश के संख्यात या असंख्यात ही प्रदेश होवें ? इस प्रकार जिज्ञासा होने पर ग्रन्थकार अग्रिम वार्तिक द्वारा आवेदन करते हैं ।
अनंतास्तु प्रदेशाः स्युराकाशस्य समंततः । लोकत्रयाद्वहिः प्रांताभावात्तस्यान्यथागतेः ॥ १॥