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________________ श्लोक-वार्तिक आदि का संयोग किसी ढंग से साधा जारहा है। उसी प्रकार अवयवी और सामान्य का अपने प्रवयव या पाश्रयों के साथ संसर्ग करना भी साधने योग्य है। उनका संसर्ग जैसा आप मानते हैं, वैसा कोई निर्णीत नहीं होसकता है। बौद्धोंने अवयवों में अवयवी के वर्तने पर जो आक्षे किये थे उस पर भी वैशेषिकों ने कोरी प्रचण्ड नरपति की प्राज्ञा के समान युक्तियों से रीता उत्तर दिया है। बात यह है कि अवयवों में अवयवी रहता है, सामान्यवान् में सामान्य रहता है, किन्तु वैशेषिक जिस ढंग से कहते हैं उस रीति से नहीं। वैशेषिकों के अनुसार उस अवयवी या सामान्य, आदि को भी यदि सर्वथा निरश मानलिया जायगा तो एकान्त रूप से भिन्न होरहे स्वकीय अवयव आदिकों के साथ सम्बन्ध नहीं होसकता है, क्योंकि ऊपर कहे गये अनुसार दोषों का प्रसंग आता है। पूर्णरूप से या एक देश से इन दो के अतिरिक्त उस सम्बन्ध के कारण होरहे अन्य प्रकारों की प्रसिद्धि है, अतः वैशेषिकों के दृष्टान्त में भी वे ही दोष खड़े हुये हैं, प्रसिद्ध दृष्टान्त से साध्य की सिद्धि नहीं होसकती है। ___ यदि कथंचित् तादात्म्य को उनका सम्बन्ध स्वीकार किया जायगा तब तो स्याद्वादियों के मत की सिद्धि हो जाती है क्योंकि सामान्यवान् का एवं अवयवों और अवयवी का कथंचित् तादात्म्थ सम्बन्ध हमारे यहाँ स्वीकार किया गया है । किन्तु इस प्रकार परमाणुओं के साथ आकाश आदि का कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध नहीं माना जा सकता है क्योंकि ये सर्वथा भिन्न द्रव्य हैं, कथंचित् भिन्नाभिन्न पदार्थों में तो कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध बन सकता है, अब अनेक परमाण के साथ एक आकाश द्रव्य का एक देश करके ही संयोग स्वीकार करना पड़ेगा और तैसा होने पर एक देश, एक देश यों अनेक देश होजाने से आकाश के सांशपन की सिद्धि होजाती है। किं च सांशमाकाशादि श्येनमेषाद्यन्यतरोभयकर्मजसंयोगविभागान्यथानुपपत्तेः । श्येनेन हि स्थाणोः संयोगो विभागश्चान्यतरकमजस्तत्रोत्पत्र कर्म स्वाश्रयं श्येनं तदाकाशप्रदेशाद्वियोज्य स्थाएवाकाशदेशेन संयोजयति ततो वा विभिद्याकाशदेशांतरेण संयोजयतीति प्रतीयते, न चाकाशस्यैकदेशाभावे तद्घटनात्, कर्मणः स्वाश्रयान्याश्रययोरेकदेशत्वात् । एक बात यह भी है कि आकाश आदिक पदार्थ ( पक्ष ) स्वकीय अशों से सहित हैं साध्य) संयुक्त या विभक्त :व्यों में से किसी एक द्रव्य में हुई क्रिया से उत्पन्न हुआ श्येन ( बाज पक्षी ) या । मनुष्य आदि का संयोग और विभाग तथा संयुक्त या विभक्त दोनों द्रव्यों में उपजी क्रिया से जन्य मैंढा, मल्ल, आदि के संयोग और विभाग ये अन्यथा यानी आकाश आदि को सांश माने विना नहीं बन सकते हैं ( हेतु )। जब कि बाज पक्षी के साथ स्थारण (टूठ) का संयोग और विभाग भला अन्यतरकर्म मे जन्य हुमा है। यहां यों समझिये कि उस श्येन में उत्पन्न हुया कर्म अपने आधार होरहे श्येन को प्राकाश के उस प्रदेश से वियोग करा कर स्थाण से अवच्छिन्न होरहे आकाश के प्रदेश के साथ संयोजित करा देता है, अथवा वह अन्यतर कर्म उस संयुक्त प्रदेश से विभिन्न कर यानी विभाग कर आकाश के अन्य प्रदेश के साथ संयुक्त करादेता है. इस प्रकार प्रतीति होरही है । आकाश के एक एक देश को माने विना उस एक एक प्रदेश के साथ हुये संयोग या विभाग की घटना नहीं होसकती है, क्रिया भी स्वकीय आश्रय में हो या अन्य आश्रय में उपज गयी होय, आकाश क एक देश में वर्त
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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