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________________ पंचम अध्याय के समान ( दृष्टान्त ) । यदि प्रकाश को सांश नहीं माना जायगा और उस प्रकाश का उन परमागनों के साथ सम्पूर्ण स्वरूप से संयोग होरहा स्वीकार किया जायगा तब तो आकाश को परमाण के बरावर होने का प्रसंग प्रजायगा अर्थात् — देखो, विचारो, जो पदार्थ एक प्रदेशीय या निरंश परमाण के साथ भीतर बाहर ऊपर, नीचे, सर्वात्मना संयुक्त हो रहा है, वह परमारण के बराबर ही है । यदि परमाण से उस संयुक्त पदार्थ का परिमाण बढ़ जायगा तो समझ लेना चाहिये कि उस संयुक्त पदार्थ का कुछ प्रश परमारण के साथ चिपटा नहीं था जैसे कि एक रुपये का दूसरे रुपये के साथ एक भाग में संयोग होजाने से दो रुपयों की गड़डी बढ़ जाती है, सर्वांग रूप से एक रुपये का दूसरे रुपये के साथ संसर्ग मानने पर तो दो रुपये मिल कर भी एक रुपये बराबर ही होंगे । केशाग्र मात्र भी बढ़ नहीं सकेंगे। इसी प्रकार श्राकाश का सर्वांग रूप से एक परमारण के साथ संयोग होजाने पर वह आकाश परमाणु के बराबर होजायगा और तैसा होने पर अनेक परमाणुओं के साथ आकाश का सर्वात्मना सम्बन्ध मानने पर आकाश धर्म आदि द्रव्यों के अनेकपनकी प्रापत्ति होगी जो कि हम, तुम, दोनों को इष्ट नहीं है । ८६ स्यान्मतं, नैकदेशेन सर्वात्मना वा परमाणुभिराकाशादियुज्यते । किं तर्हि ? युज्यते एव यथावयवी स्वावयवैः सामान्यं वा स्वाश्रयैरिति तदसत् साध्यसमत्वान्निदर्शनस्य तस्याप्यवयव्यादेः सर्वथा निरंशत्वे स्वावयवादिभिरेकां ततो भिन्नैर्न संबंधो यथोक्तदोषानुषंगात् कान्न्यैकदेशव्यतिरिक्तस्य प्रकारांतरस्य तत्संबंधनिबंधनस्यासिद्धेः । कथंचित्तादात्म्यस्य तत्संबंधत्वे स्यांद्वादिमतसिद्धिः, सामान्यतद्वतोरवयवावयविनोश्च कथंचित्तादात्म्योपगमात् । न चैवमाकाशादेः परमाणुभिः कथचित्तादात्म्यमित्येकदेशेन संयोगोभ्यु गतव्यः । तथा च सांशत्वसिद्धिः । धाँधलवाजी करते हुये वैशेषिकों का यह मत होय कि परमाण आदिकों के साथ आकाश आदि द्रव्य न तो एक देश करके संयुक्त होते हैं। जिससे कि आकाश आदि सांश होजांय और सर्वांग रूप से भी आकाश प्रादिक द्रव्य उस परमाणु के साथ संयुक्त नहीं होजाते हैं । जिससे कि आकाश का परिमाण परमाण के समान होजाता या अनेक परमाणओ के साथ संयुक्त होजाने से प्राकाश द्रव्य अनेक होजाते । तो यहां किस ढंग से परमाणु यादिकों के साथ आकाश आदिक युक्त होते हैं ? इस शंका पर हम वैशेषिकों का संक्षेप से यही राजाज्ञा -स्वरूप उत्तर है, कि वे आकाश आदिक द्रव्य परमाणओं के साथ संयुक्त हो ही जाते हैं । जैसे कि अपने अवयवों के साथ अवयवी सम्बन्धित हो जाता है । अथवा सामान्य ( जाति ) अपने द्रव्य, गुरंग या कर्म नामक प्रश्रयों के साथ सम्बन्धित होजाता है । श्राचार्य कहते हैं कि इस प्रकार वैशेषिकों का वह कथन प्रशंसनीय नहीं है । क्योंकि उनका दिया हुआ अवयवी या सामान्य स्वरूप दृष्टान्त साध्यसम है, अर्थात् - जैसे परमाणओं के साथ श्राकाश १२
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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