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________________ श्लोक-वार्तिक स्यान्मतं, नाकाशदीनां प्रदेशा मुख्याः संति स्वतोऽप्रदिश्यमानत्वात् परमाणुवत् । पादीनां हि मुख्याः प्रदेशाः स्वतोऽवधार्यमाणाः सिद्धा इति । तदयुक्तं, परमाणोरेकप्रदेशाभावप्रसंगात् छद्मस्थैः स्वतोऽप्रदिश्यमानत्वाविशेषात् । परमाणुरेकप्रदेशोत्यन्तपरोक्षत्वादस्मदादीनां स्वतोऽप्रदिश्यमान इतिचेत् तत एत्राकाशादिप्रदेशाः स्वतोऽप्रदिश्यमानाः संत्वस्मदादिभिः । अतींद्रियार्थदर्शिनां तु यथा परमाणुरेकप्रदेशः स्वतः प्रदेश्यस्तथाकाशादिप्रदेशोपीति स्वतोऽप्रदिश्यमानत्वादित्यसिद्ध हेतुः । पटादिद्वयणुकाद्यवयवैर ने कांतिकश्च तेषामस्मदादिभिः स्वतोऽप्रदिश्यमानानामपि भावात् । ८५ सम्भव है वैशेषिकों का यह मन्तव्य होय कि श्राकाश श्रादिकों के प्रदेश ( पक्ष ) मुख्य नहीं हैं ( साध्य ) स्वतः एक एक प्रदेश द्वारा नापने के ढंग से नहीं प्रदेशित किये जा रहे होने से ( हेतु ) परमारण के समान ( अन्वय दृष्टान्त ) । जिस कारण से कि पट, घट, वृक्ष, आदिकों के मुख्य प्रदेश हैंतिस ही कारण से वे स्वतः प्रदिष्ट होकर अवधारण किये जा रहे सिद्ध हैं । आकाश में यह बात नहीं है अतः आकाश के मुख्य प्रदेश नहीं हैं | आचार्य कहते हैं कि वैशेशिकों का यह कथन युक्तिरहित है क्योंकि यों तो परमाण के माने जा रहे एक प्रदेश के प्रभाव का प्रसंग होजावेगा, कारण कि अल्पज्ञ छद्मस्थ जीवों करके परमाण में भी स्वत: अप्रदिश्यमानपुना आकाश के समान अन्तर र हित विद्यमान है । यदि वैशेषिक यों कहैं कि परमाणु तो एक प्रदेशवाला है ही, किन्तु अत्यन्तपरोक्ष होने से हम आदि छद्मस्थ जीवों को स्वतः नापने योग्य प्रदिश्यमान नहीं होपाता है अथवा परमाणु का एक प्रदेश तो अनुमान या आगम से स्वीकार करने योग्य है, प्रगुलिनिर्देश करने के समान सूक्ष्म परमाणु के प्रदेश को स्वतः प्रदेशद्वारा अंकित नहीं किया जा सकता है । प्राचार्य कहते हैं कि तिस ही कारण से यानी अत्यन्त परोक्ष होने से प्रकाश, काल, आदि के प्रदेश भी हम आदि अल्पज्ञ जीवों करके स्वतः नहीं प्रदेशने योग्य होरहे होजाम्रो, हाँ प्रतीन्द्रियमर्थों . का प्रत्यक्ष करने वाले सर्वज्ञ जीवों के तो तिसप्रकार एक प्रदेश वाला परमारण अङ्ग ुलिनिर्देश से भी अत्यधिक स्वतः प्रदेशने योग्य है, तिस प्रकार प्रकाश आदि के प्रदेश भी स्वतः प्रदेश करने योग्य हैं । इस प्रकार वैशेषिकों का " स्वतः प्रप्रदिश्यमानत्वात् " यह हेतु स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास है । तीसरा दोष यह है कि पट आदि के समान द्वचरणक, त्र्यरणक, आदिकों करके यह हेतु व्यभिचारी भी है, क्योंकि हम 'प्रादिकों करके स्वतः नहीं प्रदेशित किये जारहे भी उन द्वरक का सद्भाव है अर्थात् - धरणक, त्र्यणक आदि अथवा पट श्रादि के भी एक परमाण्ववगाही प्रदेशों का स्वतः प्रदिश्यपना नहीं है, फिर भी उनके प्रदेश माने गये हैं, अतः हेतु के रहने पर द्वगुकादिकों में साध्य के नहीं बरतने से वैशेषिकों का स्वतः प्रदिश्यमानश्व हेतु व्यभिचारी हेत्वाभास है । किं च कथंचित्सांशमाकाशादि परमाणुभिरेकदेशेन युज्यमानत्वात् स्कंधवत् । तैः सर्वात्मना संयुज्यमानत्वे परमाणुमात्रत्वप्रसंगात् । तथा चाकाशादिबहुत्वापत्तिः । तस्य एक बात यह भी है कि आकाश आदि द्रव्य ( पक्ष ) कथंचित् प्रदेशों से सहित हैं ( साध्य ) ate earn के साथ एक एक प्रदेश करके संयुक्त हो रहे होने से ( हेतु ) घट, पट, यादि स्कन्ध
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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