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पंचम-अध्याय
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त्तिक में भी " श्रुतं मतिपूर्वं द्वयनेकद्वादाशभेदं " इस सूत्र के व्याख्यान में लिखा है कि धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय तथा लोकाकाश एवं एक जीव के तुल्य संख्या रूप असंख्यात प्रदेश होने के कारण एक प्रमाण ( नाप ) करके द्रव्यों का समवाय होजाने से परस्पर में द्रव्यसमवाय है, इस प्रकार अनुमान और आगम प्रमाणों से वाधित होरहा वैशेषिकों का प्राकाश में निरंशत्व को साधने वाला हेतु कालात्ययापदिष्ट है।
यदप्युच्यते निरंशमाकाशादि सदावय नारभ्यत्वात् परमाणुवदिति तदप्यनेन निरस्त, हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वाविशेषात् । किं च यदि सर्वथा सदावयवानारभ्यत्वं हेतुस्तदा प्रतिवाद्यसिद्धः पर्यायार्थादेशात पूर्वपूर्वाकाशादिप्रदेशेभ्य उत्तरोत्तराकाशादिप्रदेशोत्पत्तेगरभ्यारंभकभावोपपत्तेः । अथ कथंचिन्सदावयवानारभ्यत्वं हेतुस्तदा विरुद्धः, कथंचिभिरंशरस्य सर्वथा निरंशत्वविरुद्धस्य साधनात् । कथंचिनिरंशत्वस्य पाधने सिद्धसाधनमेव पुगद्लम्कंधवन्स दावयवतिभागाभावात् सावयवत्वाभावोपगमात्
और भी वैशेषिकों द्वारा जो यह कहा जाता है कि आकाश आदि (पक्ष ) निरंश हैं, (साध्य) सवदा अवयवों से नहीं प्रारम्भने योग्य होने से ( हेतु ) परमाण के समान (अन्वय दृष्टान्त )। इस प्रकार वैशेषिकों का यह अनुमान भी इसी कथन करके निराकृत होगया समझो, क्योंकि पूर्व अनुमान के हेतु समान इस अनुमान के हेतु का भी कालात्ययापदिष्ट हेत्वाभासपना अन्तररहित है, दूसरी बात यह भी है कि वैशेषिक यदि सर्वथा सदा अवयवों से अनारभ्यपन को हेतु कहेंगे तब तो प्रतिवादी होरहे जैनों को यह वैशेषिकों का हेतु प्रसिद्ध ( हेत्वाभास ) पड़ेगा क्योंकि पर्यायाथिक नय की अपेक्षा कथन करने से पूर्व पूर्व समय--वर्ती आकाश आदि के प्रदेशों से उत्तरोतर समयवर्ती प्राकाश आदि के प्रदेशों की उत्पत्ति होरही मानी जाती है, अत: प्रारभ्य, प्रारम्भक भाव बन रहा है।
भावार्थ-पर्याय--दृष्टि से आकाश या उसके प्रदेश आदि सभी पदार्थ प्रतिक्षण उपजतेरहते हैं, पूर्व समय-वर्ती पर्याय कारण होती है, और उत्तर समय--वर्ती पर्याय कार्य मानी जाती है आकाश के प्रदेश भी उत्तर समय--वर्ती आकाशीय प्रदेशों को या प्रदेशों के पिण्ड आकाश को उपजाते रहते हैं, ऐसी दशा में सभी प्रकारों से अवयवों द्वारा अनारभ्यपना हेतु आकाश में नहीं रहता है, अतः वैशेषिकों का हेतु स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास है। हाँ अब यदि कथंचित् सदा अवयवों से अनारभ्यपन को हेतु कहोगे तब तो वैशेषिकों का हेतु विरुद्ध हेत्वाभास होगा क्योंकि वह हेतु साध्य किये गये सर्वथा निरंशत्व से विरुद्ध होरहे कथंचित् निरंशत्व का साधना करेगा । तथा आकाश में कथंचित निरंशपन का साधन करने में हम जैनों की ओर से वैशेषिकों के ऊपर सिद्धसाधन दोष ही भी है, क्योंकि जिस प्रकार पुद्गल स्कन्धों में सदा अवयवों का विभाग है, वे टूट, फूट, जाते हैं जुड़ मिल जाते हैं, उस प्रकार प्रकाश में सदा अवयवों का विभाग नहीं है, अतः आकाश में सावयवपने के प्रभाव को हम जैनों के यहां नहीं स्वीकार किया गया है, इस कारण जिस कथंचितु निरंशपन को हम जैन प्रथम से ही मानते आरहे हैं, उसके लिये ही प्राप पुनः अनुमान रचने का घोर परिश्रम कर रहे हैं. जो कि व्यर्थ है।