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श्लोक-वातिक
में स्वाप हेतु नहीं ठहरा किन्तु सभी वृक्षों को पक्ष बनाया गया है, अतः यह हेतु परे पक्ष में नहीं व्यापने के कारण भागासिद्ध हेत्वाभास है। यहां भी तिस प्रकार भागासिद्ध दोष के परिहार का सम्भव होरहा है । देखिये वादी के द्वारा यों कहा जासकता है कि जिन वृक्षों में शयन, भग्नक्षत-संरो. हण, आदि परिणाम प्रसिद्ध नहीं हैं, वे ही वृक्ष यहां पक्ष कोटि में किये जाते हैं अन्य स्वाप आदि से रहित होरहे कम्पित या जागृत वृक्ष यहाँ पक्ष नहीं किये गये हैं । उन जागते वृक्षों में आहार करना, फलना, फूलना, आदि हेतुओं से चेतनपन की अच्छे ढंग से सिद्धि करादी जावेगी, तिस कारण यह स्वाप हेतु भी पक्ष में अव्यापक यानी भागासिद्ध नहीं हो सकेगा । यहाँ तक वैशेषिकों के — सर्व जगत्व्यापित्व " हेतु को भागासिद्ध बता दिया गया है।
किल कालात्ययापदिष्टो हेतुर्निरंशत्वसाधने सर्वजगद्व्यापित्वादिति पक्षस्यानुमानागमवाधितत्वात् सांरामाकाशादि सद्भिन्नदेशद्रव्यसंबन्धत्वात्काएडपटादिवदिति गगनादेः सांशत्वानुमानवचनात् । अत्र हेतोः मामान्यादिमिव्यभिचारासंभवात् । तेषां सकृद्भिन्नदेशद्रव्यसंबंधस्य प्रमाण सिद्धस्याभावात् । तथा धर्माधमै कजीवलोकाकाशानां तुल्य संख्येयप्रदेशत्वात् प्रदेशसमवाय इत्याद्यागमस्यापि तत्सांशत्वप्रतिपादकम्य सुनिश्चिन म भ द धकम्य सद्भावाच ।
. वैशेषिकों का प्रकाश आदि के निरंशपन को साधने में दिया गया "सर्वजगद्व्याकपना होने से " यह हेतु कालात्ययापदिष्ट । वाधित ) हेत्वाभास भी है, क्योंकि 'अाकाश आदि निरंश हैं' इस पक्ष को अनुमान और पागम प्रमाणों से वाधितपना है । प्राकाश, प्रात्मा आदिक पदाथ . पक्ष ) संशों से सहित हैं, (साध्य) एक ही वार में भिन्न भिन्न देशवर्ती द्रव्यों के साथ सम्बन्ध कर रहे होंने से ( हेतु ) काण्डपट, पदी, कनात, भींत आदि के समान ( अन्वयदृष्टान्त ) । इसप्रकार आकाश आदि के सांशपन को साधने वाले अनुमान का वचन है, इस अनुमान में पड़े हुये हेतु का सामान्य ( जाति ) विशेष, आदि करके व्यभिचार दोष होजाने का असम्भव है, क्योंकि उन सामान्य आदिकों के एक ही वार में भिन्न देशीय द्रव्यों के साथ सम्बन्ध होजाने की प्रमाणों से सिद्धि नहीं होपाती है, वैशेषिकों द्वारा माना गया नित्य, एक, अनेकानुगत, सर्वंगत, ऐसे सामान्य की प्रमाणों से सिद्धि नहीं होसकी है, घट या पट के पूरे देशों में व्याप रहे सदृशपरिमारण-स्वरूप घटत्व, पटत्व आदि सामान्य यदि कतिपय भिन्नदेशीयद्रव्यों से सम्बन्ध रखते हैं तो वे सामान्य साथ में सांश भी हैं, अतः व्यभिचार दोष की सम्भावना नहीं है, यह वैशेषिकों के अनुमान की इस अनुमान से वाधा प्राप्त हुई । तथा वैशेषिकों के अनुमान की आगम-प्रमाण से यों वाधा पाती है कि धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, एक जीव द्रव्य और लोकाकाश के तुल्य रूप से असंख्यातासंख्यात प्रदेश हैं, इस कारण इन चारों का समप्रदेशत्व रूप से सम्बन्ध होरहा है, इत्यादिक आकाश आदि को सांशपने के प्रतिपादक आगम का भी सद्भाव है, जिन आगमों के वाधक प्रमारणों के असम्भवने का बहुत अच्छा निर्णय होचुका है।
भावार्थ-द्वादशांगों के विषय का वर्णन करते हुये प्राचार्यों ने समवायांग का निरूपण करते समय धर्म, प्रादिक चार के तुल्य असंख्यात प्रदेशी होने से द्रव्यसमवाय इष्ट किया है ! राजवा