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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः ८७ 66 1 1 वैशिषिकों की उत्पाद विनाश प्रक्रियाका दिखलाना तो बकना मात्र है । इसमें प्रत्यक्षसे ही विरोध आता है । पांच शेर इक्षुरसमें छटाकभर दूसरा इक्षुरस मिला देनेसे तत्काल नवीन अवययी बन जाता है 1 भेदसंघाताभ्यामुत्पद्यन्ते " जैन सिद्धान्तमें भेद और संघात तथा कुछका भेद कुछका संघात इन तीनों प्रकारोंसे अवयवी उत्पत्ति मानी गयी है । अतः वैशेषिकों का कहना प्रत्यक्षविरुद्ध पडता 1 अवयवी में भी अवयवों के समवेत हो जाने का कोई विरोध नहीं है । वैशेषिकाने तीन धणुकोंसे एक त्र्यणुक और चार त्र्यणुकोंसे एक चतुरणुक इत्यादि जो सृष्टिप्रक्रिया मानी है वह भी ठीक नहीं तीन अणुओं या एक व्यणुक और एक अणुसे ही त्र्यणुक पैदा होता है । दो व्यणुक या एक त्र्यणुक और एक अणु अथवा चार अगुओंसे ही चतुरणुक स्कन्ध उपजता है । बात यह है कि चतुरक चार ही अणु होनी चाहिये । पंचाणुक में द्रव्यरूपसे पांच अणुयें हीं पर्याप्त हैं, न्यून अधिक नहीं । शब्द वाच्य अर्थपर भी दृष्टि डालनी चाहिये । यों चाहे जहां मन चाहा अडंगा लगा देना शोभा नहीं देता । वैशेषिकोंके मतानुसार एक सौ बीस अणुओं का पंचाणुक स्कन्ध और सातसौवीस परमाणु द्रव्योंका बना हुआ एक षडणुक स्कन्ध हम जैनों को अभीष्ट नहीं है । वैशेषिकों को यह 1 हुआ है कि सृष्टिकी आदिमें ईश्वर इच्छा या अन्यदा अग्निसंयोग, ईश्वर, आदि कारणोंसे जब सभी परमाणुओं के व्यणुक बन गये तो अब त्र्यणुक बनने के लिये व्यणुकका साथी अकेला परमाणु कहांसे आवे ? अथवा वहां रखे हुये सब व्यणुकोंके जब त्र्यणुक बन गये तो जैन मतानुसार चतुरणु को बना - नेके लिये वहां द्यणुक और परमाणुयें कहां रखे हुये हैं ? जिनसे कि चार परमाणु या दो द्व्यणुकों से झट एक चतुरणुक बना लिया जाय । इसपर हम जैनों का यह कहना है कि जगत् में अनन्तानन्त द्यणुक या परमाणुयें ठसाठस भरे हुये हैं । अनन्ताअनन्त परमाणुयें तो ऐसी पडी हुईं हैं जो अद्यापि स्कन्धस्वरूप नहीं हुयीं और होंगी भी नहीं । जहां घट, पट, षडणुक, पंचाणुक, चतुरणुक बन रहे हैं वहां भी अनेक परमाणुयें, अनन्ते द्व्यणुक, विद्यमान हैं । वहां रखी हुयी सभी परमाणुयें य डर लगा 1 । दूरसे भी परमाणुयें खेंची जा सकती हैं । अनुसार ही नियत पुगलों की नियमित कपालिकाओंसे एक कपाल और दो कपा नहीं बन जातीं हैं । द्यणुक सभी त्र्यणुक नहीं बन जाते हैं या कारणवशसे वे चली आतीं हैं । अपनी अपनी योग्यता परिणतियां होतीं हैं, आगे चलकर भी तो वैशेषिकोंने दो लोंसे एक घट अवयवी की उत्पत्ति स्वीकार की है । फिर पहेले षडणुक, सप्ताणुक, स्कन्धों में यह अनुचित ( बेहुदे पनका ) क्रम क्यों बना रखा है ? इस बातको जगत् में डेड बुद्धिको मानकर अपने ही एक पूरी बुद्धिको समझ बैठे औलूक्य मतानुयायी वैशेषिक ही जानें प्रकरणमें यह कहना है कि खरविषाण भी नास्ति और अनुपलभ्यमान नहीं है । चार पांववाला गधा पशु प्रसिद्ध है । सींग भी गाय, भैंस में प्रसिद्ध होरहे केवल गधा और सींगका समवाय हो जाना धर्म ही नहीं देखा जा रहा है । तब तो खरविषाणका एक छोटासा धर्ममात्र ही अप्रसिद्ध हुआ । सर्वत्र, सर्वदा, सर्वथा, खरविषाण पदार्थ तो नास्ति और अनुपलम्भका अधिकरण नहीं है । इसी प्रकार कछवेके रोम या आकाशका फूल भी सर्वथा अप्रसिद्ध
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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