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तत्त्वार्थ लोकवार्त
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नहीं है । मण्डूकाशखण्डक भी अस्ति होकर जाना जा रहा एक ढंगसे प्रसिद्ध है । देखो, कथंचित् 1 असत् हो रहे पदार्थके ही अस्तित्व और उपलम्भ धर्म हैं तथा कथंचित् सत् पदार्थ के ही नास्तिपन और अनुपलम्भ माने गये हैं। न तो सभी प्रकारोंसे सत् हो रहे पदार्थ के ही अस्तित्व और उपलम्भ धर्म हैं । क्योंकि यों तो घटका पट रूपसे या जीवरूपसे भी सद्भाव बन बैठेगा । यों चाहे जो पदार्थ चाहे जिस पदार्थस्वरूप होता हुआ सर्वसंकरदोष ग्रस्त हो जायगा । यदि सर्वथा असत् के ये नास्तित्व या अनुपलम्भ धर्म माने जायंगे तब तो सर्वशून्यवादमें बोलने, सुनने, समझने, समझाने, का व्यवहार ही नष्ट हो जायगा । " स्याद्वादो विजयतेतरां " । संचित कर्मो की पराधीनतासे चौरासी लाख योनियोंमें | भ्रमण करते हुये जीवको मण्डूक ( मैडुका ) भवकी प्राप्ति हो चुकनेपर पुनः वह जीव मनुष्य गतिमें कुमारी अवस्थाको धारण करता है, उस समय उस स्त्रीके जो कौआके पंख समान केशरचना विशेष है वह कुमारी लडकीकी चोटी या वेंनी पूर्वमण्डूककी कही जा सकती है । देवदत्तकी दुकान जानेपर भी किसी अपेक्षा देवदत्तकी कही जा सकती है । पार्श्वनाथ के पहिले भावों के कर्त्तव्यों को पार्श्वनाथकी कृति बखाना जाता है । जब फूलको आकाश अवगाह दे रहा है तो आकाशका पुष्प कहनेमें क्या क्षति है ? देखो वृक्षमें जितनी देर या जितने अंशसे पुष्प संयुक्त हो रहा है, उससे कहीं अधिक देरतक सर्वागरूपसे आकाश के साथ पुष्पका संयोग बन रहा है । वृक्षसे वियुक्त हो गया भी फूल कभी आकाशसे प्रच्युत नहीं होता है । इस प्रकार जबतक पुष्प विद्यमान रहेगा आकाशके साथ उसका सम्बन्ध नहीं छूट सकता है । थोडा माता, पिताका पुत्रके साथ हुये सम्बन्धको अथवा देवदत्तका धन या खेत अथवा शत्रुसे हुये सम्बन्धको निरख लो । जब ऐसे स्तोक सम्बन्धवाले स्थलोंमें षष्ठी विभक्ति आसक्त होकर उतर आती है तो शशविषाण, वन्ध्यापुत्र, मृगतृष्णाजल आदि में विचारशाली वैयाकरणोंके द्वारा समास के प्रथम उतार ली जा चुकी सम्बन्धवाचक षष्ठी विभक्तिको निर्मूल क्यों कहते हो ? बात यह है कि “ सिद्धिरने कान्तात् " अनेकान्तसे पदार्थोंकी सिद्धि हो रही है । खरविषाण आदिमें भी नास्तित्व साध्य और अनुपलम्भ आदि हेतु विद्यमान नहीं हैं । तिस कारण से चार्वाकों द्वारा आत्मद्रव्यका सभी प्रकारोंसे सर्वत्र सदा नास्तिपन साध्य करते सन्ते तिस प्रकार अनुमानमें कहे गये अनुपलम्भ, अकारणत्व, अकार्यत्व, सम्भवद्बाधकत्व, आदि हेतुओंका जगत्वर्त्ती कोई पदार्थ अन्वयदृष्टान्त नहीं है । जो चार्वा - कोंने खरविषाण आदि दृष्टान्त उपात्त किये थे, वे तो साध्य और साधन दोनोंसे रहित हो रहे सिद्ध कर दिये गये हैं । जो साध्य और साधनसे विकल है ( खाली है) वह अन्वयदृष्टान्त नहीं हुआ करता है, अन्वयदृष्टान्तमें ही हेतु और साध्यकी व्याप्तिका प्रदर्शन कर ही चार्वाक अपना आत्माके नास्तित्व सिद्धिका प्रयोजन साध सकते थे । अब तो उन चार्वाकोंके पास कोई उपाय शेष नहीं है । जब कि प्रत्यक्ष, अनुमान और आप्तवाक्यसे आत्माका अस्तित्व प्रतीत हो रहा है, तो ऐसी दशा में आत्माका नास्तित्व सिद्ध करना चार्वाकोंका स्वयं अपनेको अवस्तु साधनेका निन्द्य प्रयत्न है 1
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