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________________ तत्त्वार्थश्लोक वार्तिके 1 1 1 करके नहीं है । इस प्रकार निश्चय किया जाता है तथा मेंढा, छिरिया, बन्दर, आदिके अवयवी शरीर में अवयव होकर समवायसहितपने करके प्रसिद्ध हो रहे रोम ही तो कछत्रेमें समवायीपने करके नहीं है, और नहीं देखे जा रहे हैं । इस ढंगसे तो नास्तित्व साध्य और अनुपलम्भ हेतुको कूर्म रोम धार सकता है, तथा वनस्पतिमें समवायी होकर के प्रसिद्ध हो रहा है अस्तित्व और उपलम्भ जिसका, ऐसा पुष्प ही गगनके समवायीपने करके नास्तित्व ( साध्य ) और अनुपलभ्यमानत्व ( हेतु ) धर्मका अधिकरण हो रहा देखा गया है । किन्तु फिर सब ही स्थानोंपर सदा सभी प्रकारोंसे जगत्का कोई भी पदार्थ नास्तिपन और अनुपलम्भका अधिकरण हो रहा तो अद्यावधि प्रसिद्ध नहीं है। क्योंकि विरोध दोष आता है । अर्थात् जो नास्तिपन या अनुपलम्भ धर्मो का आश्रय होगा वह सत्रूपसे ही प्रसिद्ध होगा । धर्म तो सद्रूपधर्मी में रहते हैं और जो सत् पदार्थ है उसमें नास्तिपन, अनुपलम्भ, कारणरहितपन, कार्यरहितपन, ये धर्म नहीं ठहर सकते हैं । " संज्ञिनः प्रतिषेधो न प्रतिषेध्यादृते क्वचित् ” अखण्डपदकी संज्ञावाले पदार्थका प्रतिषेध करना प्रतिषेध्य की सत्ता माने बिना असम्भव है। एक स्थानपर प्रतिषेध्यकी सत्ता सिद्ध होनेपर अन्य स्थानोंपर उसका निषेध किया जा सकता है । अष्टसहस्री ग्रन्थमें “ अद्वैत शद्वः स्वाभिधेयप्रत्यनीकपरमाथापेक्षो नञ् पूर्वाखण्डपदत्वादहेत्यभिधानवत् इस अनुमानसे द्वैत, आत्मा, आदि शद्वों के सद्भावरूप वाच्य अर्थ साध दिये गये हैं । जबकि अम्भव कहे जा रहे खरविषाण आदि समसित पदोंके वाच्य अर्थ की भी सिद्धि करते हुये उनमें सर्वथा नास्तिपन और अनुपलम्भ नहीं साधे जा सकते हैं तो आत्मा या चैतन्यका अस्तित्व साधना तो सुलभसाध्य है । वैशेषिकमत अनुसार अवयवोंमें, अवयवी समवाय सम्बन्धसे रहता है | अतः सींग या बालस्वरूप अवयवोंमें भैंसा, मेढा, गाय, आदि अवयवी समवाय सम्बन्धंसे वर्त्त रहे सन्ते समवेत क जाते हैं । अवयवीके समवायको धार रहे अवयव समवायी माने जाते हैं । किन्तु जैनसिद्धांत अनुसार मडी हुई चूनकी लुंडमें थोडा आटा और मिला देनेसे पुनः एक अवयवी बन जाता है । उसी प्रकार प्रकरणप्राप्त अवयवी में भी कुछ अवयव मिला देनेसे द्वितीय अवयवी उत्पन्न हो जाता है । यानी अबयवीमें भी अवयवका रहना जैनसिद्धान्त अनुसार अभीष्ट है। यहां वैशेषिक यों मान रहे हैं कि मनभर दूध छटांक भर दूध मिलानेपर अथवा दश सेर आटे की लुंडमें छटांकभर ओटा या न्यारे छटांक भर आटेकी लंड को मिला देनेसे एवं चालीस गज लम्बे वस्त्रमें एक सूत मिलाने या निकालनेसे अत्रयवीका नाश हो जाता है । अवयवी पुनः अवयव उसके भी अवयव आदि पञ्चाणुक, चतुरणुक, त्र्यणुक, द्व्यणुक, इस विनाश क्रमसे परमाणु हो जाते हैं । यों पूर्व अवयवीका नाश होकर पुनः सम्मिलित हुये दूसरे अवयवों के साथ द्यणुक, त्र्यणुक, चतुरणुक, पञ्चाणुक, षडणुक, सप्ताणुक, इस क्रमसे अवयव, अवयवी, महात्रयवी, चरमावयवी, द्रव्यकी पुनः सृष्टि होती है । दो अणुओं क बनता है । णुकोंसे एक त्र्यणुक बनता है । चार त्र्यणुकोंसे एक चतुरक बनता है । पांच चतुरणुकोंसे एक पंचाणुक बनता है । यही ढंग अवयवी पर्यन्त चला जाता है । यह 1 1 1 ८६
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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