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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
हाथी, आदि अथवा घट, पट, चौकी, पुस्तक, आदिक जीव या पुद्गलकी पर्यायोंका वर्तमानकालमें अन्योन्याभाव माना गया है। तथा तीनों कालमें जो पर्याय या द्रव्य तद्रूप न हो सके ऐसी जड, चेतन, या धर्मद्रव्य या अधर्मद्रव्यका एक दूसरे में अत्यन्ताभाव माना गया है, जो कि त्रैकालिकसंसर्गावच्छिन्न है । वैशेषिकोंको भी इसी मार्गका अनुसरण करनेपर निराकुलता मिल सकती है । प्रकरण में हमारे अकार्यत्वहेतुका अत्यन्ताभाव करके व्यभिचार नहीं आता है। क्योंकि चेतन, अचेतन, पदार्थोंका परस्पर अत्यन्ताभाव भी चेतन, अचेतन पर्यायस्वरूप हो जानेसे कार्य ही है इस कारण अकार्यत्व हेतुके न रहनेपर साध्य नहीं भी रहो कोई त्रुटि नहीं है । हेतुके रहते हुये वहां साध्य नहीं ठहरता तो व्यभिचार दोष उठाया जा सकता था । दूसरी बात यह है कि अभावका अपन्हव करनेवाले उन परपक्षभूत चार्वाकोंके यहां तो पृथिवी आदिक चार तत्त्वोंसे कोई अर्थान्तरभूत हो रहे प्रागभाव आदिक माने ही नहीं गये हैं । अन्यथा उन प्रागभाव, अन्योन्याभाव, आदिकोंको चार तत्त्वोंसे अतिरिक्त तत्त्वान्तरपनेका प्रसंग हो जायगा । तथा तीसरा उपाय यह भी है कि व्यभिचार उठानेवाले चार्वाक यदि इतरेतराभाव और अत्यन्ताभावमें किसी ढंगसे अकार्यत्वहेतुको रख देना चाहते हैं तो अच्छी बात है, उन इतरेतराभाव और अत्यन्ताभावमें सदा अस्तिपनके ज्ञानकी विषयता हो जाने से उन करके व्यभिचार नहीं हुआ, अकार्यत्व हेतु रह गया तो साथमें सर्वदा अस्तिपन वह साध्य भी वहां ठहर गया । कुलीन पतिपत्नीके समान साध्य हेतुओंमें अविनाभाव वर्त्त जानेसे व्यभि - चारकी शंका भी नहीं रहती हैं । विषमव्याप्ति न होकर यदि हेतु साध्योंमें जहां समव्याप्ति हो रही है, वहां हेतु तो क्या, एकपत्नीव्रत पतिके समान साध्य भी व्यभिचारी नहीं हो पाता है ।
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खरविषाणादिदृष्टांतश्च साध्यसाधनविकलः, खरविषाणादेरप्येकांतेन नास्तित्वानुपलभ्यमानत्वाद्यसिद्धेः । गोमस्तकसमवायित्वेन हि यदस्तीति प्रसिद्धं विषाणं तत्खरादिमस्तकसमवायित्वेन नास्तीति निश्चीयते, मेषादिसमवायित्वेन च प्रसिद्धानि रोमाणि कूर्मसमवायित्वेन च न संति, नोपलभ्यंते च वनस्पतिसमवायित्वेन प्रसिद्धास्तित्वोपलंभं कुसुमं गगनसमवायित्वेन नास्तित्वानुपलभ्यमानत्वधर्माधिकरणं दृष्टं न पुनः सर्वत्र सर्वदा सर्वथा किंचिनास्तित्वानुपलंभाधिकरणं प्रसिद्धं विरोधात् । ततो नात्मनः संर्वथा सर्वत्र सर्वदा नास्तित्वे साध्ये तथानुपलंभादिहेतूनां निदर्शनमस्ति साध्यसाधनविकलस्यानिदर्शनत्वात् ।
चार्वाकोंने अनुपलम्भ, अकारणत्व, अकार्यत्व, इन तीन हेतुओंसे आत्मा के नास्तित्वको साध हुये जो कि खरंविषाण, कच्छपरोम, आदि अन्वयदृष्टान्त कहे थे वे दृष्टान्त भी नास्तित्व साध्य और अनुपलम्भ आदि हेतुओंसे रहित हैं । क्योंकि खरविषाण, वन्ध्यापुत्र, आदि दृष्टान्तोंका एकान्त करके ( सर्वथा ). नास्तिपन और अनुपलभ्यमानत्व ( अनुलम्भ ) आदिकी सिद्धि नहीं हो सकी है 1 देखिये अत्रयवी गौके मस्तक में समवायसम्बन्धसे वर्त्त रहेपन करके जो ही सींग प्रसिद्ध हो रहा है, वही सींग तो गधा, घोडा, हाथी, आदिके उत्तमांगों ( शिरोभाग) में समवायसम्बन्धसे वर्तमानपने