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वार्थ लोकवार्त
घटकी पूर्ववर्त्ती कुशूल
स्थानपर अत्यन्ताभाव पाठ अच्छा है । देखिये, पर्याय अर्थोंका अवलम्ब लेनेपर पर्याय ही घटका प्रागभाव है और वह कुशूल तो उस कुशूल के पूर्ववर्ती कोष पर्यायका कार्य है । अतः कुशूलका प्रागभाव कोष हुआ तथा कोषका प्रागभाव उसकी पूर्व पर्याय शिवक हुआ और वह शिवक दूसरे स्थासका कार्य है । इस ढंगसे पूर्ववर्त्ती पर्यायोंको ही हम उत्तरवर्त्ती पर्यायोंका प्रागभाव मानते हैं । इसपर प्रागभावको अनादि माननेवाले वैशेषिक यदि यो कटाक्ष करें कि हमारे यहां तो प्रागभाव माना गया है । अतः अनादिकालसे अबतक कार्यकी उत्पत्तिको रोकता हुआ बैठा है किन्तु जैनोंके यहां जब पूर्वपर्याय ही का नाम प्रागभाव है तो उस पूर्वपर्यायकी पूर्व अवस्थाओं में घटकी उत्पत्ति हो जानी चाहिये । क्योंकि घटकी उत्पत्तिका प्रतिबन्धक अभी प्रागभाव तो उपजा ही नहीं है । ध्वंस तो घटके उपज जानेपर पीछे होनेवाला अभाव है । इतरेतराभाव और अत्यन्ताभाव भी घटके उपज चुकनेपर व्यवहार प्राप्त होते हैं । अतः किसी भी प्रतिबन्धक अभाव के विद्यमान नहीं होनेसे लम्बी अनादिकालीन पर्यायसन्ततिमें घटकार्यके सद्भावका प्रसंग आता है । अब आचार्य समाधान करते हैं कि वैशेषिकोंका उक्त आक्षेप ठीक नहीं है। क्योंकि प्रागभाव के विनाशको ही हम कार्यरूप करके स्वीकार करते हैं । अनादि पूर्वपर्यायकी सन्तानमें अभीतक जब प्रागभाव उत्पन्न ही नहीं हुआ है तो भला उसका ध्वंस कहांसे होय ? अतः प्रागभावके ध्वंसरूप कार्यका पूर्व अवस्थाओं में सद्भाव हो जानेका प्रसंग नहीं उठा सकते हो । जैसे कि उत्तर अवस्थारूप ध्वंसका ध्वंस हो जानेपर पुनः कार्य के उज्जीवनका प्रसंग नहीं दे सकते हो । भावार्थ — पूर्व अवस्थारूप प्रागभावका ध्वंस हो जाना कार्य सद्भाव है । " कार्योत्पादः क्षयो हेतोः " और कार्यकी उत्तर अवस्थारूप का प्रागभावस्वरूप कार्य सद्भाव है । अतः कार्यसद्भाव के आगे पीछेकी पर्यायोंके समयोंमें कार्यसद्भावका आपादन करना उचित नहीं है । ध्वंस और प्रागभावको हम तुच्छ पदार्थ नहीं मानते हैं । किन्तु मीमांसकों के समान हमारे यहां रिक्तभाव ही अभाव माना गया है।
कुटपटयोरितरेतराभावः कुटपटात्मकत्वात्कार्यः चेतनाचेतनयोरत्यंताभावोपि चेतना - चेतनात्मकत्वात् कार्य इति । परस्य तु पृथिव्यादिभ्योर्थंतरभूताः प्रागभावादयो न संत्येवान्यथा तेषां तत्वांतरत्वप्रसंगात् । तथेतरेतराभावात्यंताभावयोः सर्वदास्तीति प्रत्ययविषयत्वात् न ताभ्यामनेकांतः ।
आत्माका सदा अस्तित्व साधने के लिये दिये गये जैनों के अकार्यत्व हेतुका ही निर्दोषपना दिखाया जा रहा है कि घट और पटमें परस्पर ठहर रहा उनका अन्योन्याभाव तो घट और पट स्वरूप ही है । अत: जब घट, पट कार्य हैं तो उनका तदात्मक अन्योन्याभाव भी कार्य हुआ । अतः अकार्यत्वहेतु अन्योन्याभावमें नहीं ठहरा । ऐसी दशामें साध्य भी नहीं रहे. तो हमारे अकार्यत्व हेतु ( न कि चार्वाक अकार्यत्व हेतुमें ) व्यभिचारदोष नहीं चढ बैठेगा । जो पुद्गल या जीवकी पर्याय वर्तमानमें तद्रूप नहीं है, किन्तु आगे पीछे कालोंमें तद्रूप हो सके ऐसी देव, मनुष्य, घोडा,