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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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नेसे आत्माके कार्य हो रहे सुखज्ञान, वेदना, पुरुषार्थ, इच्छा या रक्त, वीर्य, उत्पन्न कराना आदि कार्योकी प्रसिद्धि हो रही है ! अतः कार्यरहितपना हेतु आत्मा स्वरूप पक्षमें नहीं ठहरनेसे असिद्ध हेत्वाभास है । पूर्व में जैसे आत्माके कारणोंको साध दिया था। अब आत्माके उत्तरवर्ती कार्योको प्रसिद्धकर दिखा दिया है । सन्तानरूपी नदी दोनों ओर अनादि, अनन्त, किनारोंसे घिरी हुई है तथा आत्माके नास्तित्वको सिद्ध करनेके लिये प्रयुक्त किया गया चार्वाकोंका अकार्यत्व हेतु व्यभिचारी हेत्वाभास भी है। मुरमुर या भूभड आदि अवस्थामें पडी हुई अग्नि भविष्यमें किसी भी कार्यको नहीं कर रही है। अतः कभी कभी विशेष कार्यके नहीं करनेसें अकार्यत्व हेतु उस अग्नि करके अनैकान्तिक हो जाता है । जैनसिद्धान्त अनुसार सभी पर्यायें भविष्यमें किसी किसी पर्यायको उत्पन्न कर तब नष्ट होती है। फूसकी आग या फुलिंगा भी कुछ कार्योको करते हैं । रुई या वारूदमें फुलिंगा आग लगा देता है। शरीरको थोडा भुरसा देता है, कुछ देर उष्णता रखता है, उससे वैसी ही लम्बी चौडी ज्वाला या फुलिंगा ही भविष्यमें सदा उपजता रहे, ऐसा हम जैनोंको एकान्त अभीष्ट नहीं । हां, इंसक दाह हो चुकनेपर पीछे की बच रही आग कुछ भी कार्य नहीं कर रही है, ऐसा चार्वाक मानते हैं । तृणोंसे रहित वालू रेतमें पड़ी हुई अग्नि भी जलाना पकाना फफोडा डालना, सोखना, आदि कार्योको नहीं कर रही मानी है । जैसे कि नैयायिकोने अन्तके चरम अवयवीका पुनः कोई अवयवीको उत्पन्न कराना कार्य नहीं माना है । अतः चार्वाकोंके अकार्यत्व हेतुको उन्हींके मन्तव्य अनुसार मुरमुर फुलिंगा, आदिकी अग्निसे व्यभिचारी कर दिया है । इस अग्निमें उत्तरवर्ती कार्यको करनेसे रहितपना है । किन्तु असत्व य वहां नहीं है, तथा चार्वाकोंका कार्यत्वके अभावस्वरूप अकार्यत्व हेतु विरुद्ध हेत्वाभास भी है । उसीको प्रसिद्ध कर दिखाते हैं । आत्मा ( पक्ष ) सदा विद्यमान रहता है, (साध्य) अकार्यपना होनेसे ( हेतु ) पृथिवीत्व या पृथिवीतत्त्व आदिके समान ( अन्वयदृष्टान्त ) घट, पट, आदि पृथिवी पर्यायोंका नाश हो जानेपर भी चार्वाक पृथिवी तत्त्वका नाश हो जाना नहीं मानते हैं। अतः इस अनुमान द्वारा आत्माको नित्यत्व सिद्ध करनेवाला अकार्यत्व हेतु तो चार्वाकोंके उक्त साध्य नास्तित्वसे विरुद्ध हो रहे सदा अस्तित्वके साथ अविनाभाव रखता है। अतः साध्यसे विपरीत हो रहे के साथ व्याप्तिको रखनेवाला अकार्यत्व हेतु विरुद्ध हेत्वाभास है। आत्माका सदा अस्तित्व साधनेवाले हमारे अकार्यत्व हेतुका प्रागभाव, इतरेतराभाव या उत्पन्न हुआ अभाव याने ध्वंस, अथवा अत्यन्ताभाव करके व्यभिचार नहीं आता है । क्योंकि द्रव्य अर्थका आश्रय करनेपर उन प्रागभाव आदि अभावोंकी सिद्धि नहीं हो पाती है। सर्वदा नित्य द्रव्य विद्यमान रहता है । द्रव्यरूपसे किसीका कोई अभाव नहीं है। हां, पर्यायरूप अर्थका आश्रय करनेपर तो वे प्रागभाव, प्रध्वंस, अन्योन्याभाव, अत्यन्ताभाव, कार्य ही हैं । अतः अकार्यत्व हेतुके न रहते हुये असत्त्व साध्य नहीं भी रहा तो कोई क्षति नहीं है । ध्वंस अभावको सभी वादी कार्य मानते हैं । अतः अकार्यत्व हेतुका धंस करके व्यभिचार होना कथमपि सम्भावित नहीं है । अतः उत्पन्नाभावके