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तत्त्वार्थ लोकवार्तिक
निज स्वभावोंकी रक्षा नहीं रख सकेगा । यदि अपरिणामीपन और स्वभाव सांकर्यको इष्ट नहीं करना चाहते हो तो अपने अपने स्वरूपसे ही अपनी अपनी अपनी परिणति होना इष्ट करना चाहिये । बात यह है कि हम जैन इन जीव और उपयोगका एकान्तरूपसे तादात्म्य सम्बन्ध नहीं मानते हैं । किन्तु द्रव्यार्थिक नयसे अभेद और पर्यायार्थिक नयसे जीव तथा उपयोगका भेद स्वीकार करते हैं । अतः पूर्व प्रकरणों में वह आक्षेपकी विधि तो जीव और उपयोग एकान्तरूपसे तादात्म्यका आश्रय कर उठाई गयी है । तथा द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिक नयका अवलम्ब लेकर आचार्य महाराजने समाधानका विधान कर दिया है। यह शिष्यों को भले प्रकार समझ लेना चाहिये ।
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अत्रापरः प्राह–उपयोगस्य लक्षणत्वानुपपत्तिर्लक्ष्यस्यात्मनोसत्त्वात् । तथाहि । नास्त्यात्मानुपलंभादकारणत्वादकार्यत्वात् खरविषाणादिवदिति । तदयुक्तं । साधनदोषदर्शनात् । अनुपलंभादयो हि हेतवस्तावदसिद्धाः प्रत्यक्षानुमानागमैरात्मनोऽनाद्यनंतस्योपलंभात् । योगिप्रत्यक्षस्य तदुपलंभकस्यागमस्य च प्रमाणभूतस्य निर्णयात्तदनुपलंभोसिद्ध एव वा अनैकांति कश्च चार्वाकस्य परचेतोवृत्तिविशेषैः ।
यहां कोई चार्वाकमतानुयायी दूसरा विद्वान् सगर्व पूर्वपक्ष कहता है कि उपयोगको जीवका. लक्षणपना बन नहीं सकता है। क्योंकि उपयोग नामका लक्षणके लक्ष्य माने जा रहे, आत्माका सद्भाव नहीं । सद्भूत देवदत्तका लक्षण दण्ड हो सकता है । असत् आकाशपुष्पका कोई भी पदार्थ लक्षण नहीं बन सकता है । जब आत्मा पदार्थ ही कोई नहीं है तो फिर लक्षण किसका किया जारहा है ? दुल्हाके विना यह किसका विवाह रचा जा रहा है ? देखिये, उस आत्मा के अभावको हम अनुमान द्वारा यों साधते हैं कि आत्मा ( पक्ष ) नहीं है ( साध्य ) उपलब्धि नहीं होनेसे ( पहिला हेतु ) निजका पूर्ववर्त्ती उत्पादक कारण नहीं होनेसे ( दूसरा हेतु ) निजका उत्पाद्य उत्तरवत्र्त्ती कोई कार्य नहीं होनेसे ( तीसरा हेतु ) खरविषाण, वन्ध्या पुत्र, आदिके समान ( अन्वयदृष्टांत ), इस प्रकार आत्माका अभाव सिद्ध है | अब आचार्य कहते हैं कि वह भूतवादियोंका कथन युक्तियोंसे रीता है। क्योंकि उनके कहे हुये हेतुओंमें अनेक दोष देखे जाते हैं । अनुपलम्भ, अकारणत्व, आदिक हेतु तो सबसे पहिले असिद्ध हेत्वाभास हैं। क्योंकि प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, प्रमाणों करके अनादि, अनन्त, आत्मा द्रव्यका उपलम्भ हो रहा है। उस आत्माका उपलम्भ करनेवाले प्रमाणभूत सर्वज्ञ प्रत्यक्षका निर्णय हो है । स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष भी सबके पास विद्यमान है तथा आत्माको जाननेवाले प्रमाणभूत अनुमान । और आगम का निर्णय हो रहा है । अतः उसका अनुपलम्भ संज्ञक हेतु अपने पक्षमें नहीं ठहरनेसे असिद्ध हेत्वाभास ही है तथा ( अथवा ) चार्वाक ओरसे दिया गया अनुपलम्भ हेतु दूसरे पुरुषोंकी विशेष चित्तवृत्तियों करके व्यभिचार दोषयुक्त वृत्तियों का प्रत्यक्ष भी करलें किन्तु दूसरों के
रहा.
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अर्थात् - अकेले हम अपनी अपनी स्थूलचित्त या आत्मामें क्या वर्त रहा है, इसका सर्वज्ञके सिवाय
स