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तत्वार्थचिन्तामणिः तुमको अपने सिद्धान्तसे, विरोध हो जायगा । आपने स्वयं इस बातको इष्ट किया है कि पृथ्वी, अप, तेज, वायु ये महाभूत चार तत्त्व गंध, रस, रूप, स्पर्श, आत्मक होते हुये शुक्लरूप आदिक परिणतियोंको धारते हैं। अतः तुम " जो जिस स्वरूप है वह उस करके ही उपयुक्त नहीं हो सकता है" इस कटाक्षको लौटा.लो । आत्मा यदि ज्ञानस्वरूप नहीं होगा तो क्या पत्थरकी परिणति ज्ञान होगी ? देखे वालूकी रोटी बना तो लो । चौथी बात यह है कि जिसके यहां आत्मा सर्वथा ज्ञान आत्मक है. उसके यहां धारारूपसे ज्ञानस्वरूप परिणतियां नहीं बन सकती हैं। किंतु जैनसिद्धांत अनुसार किसी अंशसे आत्मा ज्ञानात्मक है तथा अन्य अंशोंसे सुख आत्मक. इच्छा आत्मक, भी है । अतः अन्य आत्मक हो रहे आत्माका ज्ञानस्वरूप परिणाम होता उचित है । यदि एकान्त करके, आत्माको ज्ञानआत्मक या अन्य. इच्छा आदि आत्मक ही मान लिया जायगा तो तिस भावका कभी विराम नहीं होगा। उसका विराम.. मानतेपर, आत्मा द्रव्यके विराम होनेका भी प्रसंग आजावेगा जो कि इष्ट नहीं है । अतः आत्मा किसी भी विवाक्षित स्वरूपसे उपयोगात्मक है. और अन्य स्वरूपोंसे अन्य आत्मक है। ऐसे कथंचित् उपयोगात्मक आत्माका उपयोग धर्म करके उपयुक्तपना बन सकता है । पांचवी बात यह है कि उस आत्मक हो. रहे पदार्थका ही उस करके परिणाम हो रहा देखा जाता है। जैसे कि दूध, पानीका उस ही रूपसे परिणाम होता है । देखिये, गीलापन, मीठा, आदि अपने स्वभावोंको नहीं छोडता हुआ दूध, गुड़, बूरा, या जलके. सम्बन्धसे मीठा दूध, लस्सी, आदि अन्य परिणामोंको प्राप्त हो जाता है । गौके स्तनसे निकलते ही दूध धारोष्ण रहता है. थोडी देरमें दूध शीतल हो जाता है। पुनः अग्निके सम्बन्धसे उष्ण या रबडी, खोआ, मलाई, बन जाता है । अतः दूधके दूधरूप विवर्त हैं । दूधका परिणाम घट, पट, नहीं हो सकता है । जल भी शीतल जल अथवा हिम ( बरफ ) आन्मक होता हुआ उस रूपसे. परिणम जाता है। बुद्धिमान् शिशु ही भविष्यमें उत्तम कोटिका विद्वान हो जाता है । कडे स्वरूप होने योग्य सुवर्ण ही खडुआ परिणामको धारता है । चूनकी रोटियां बनती हैं। खांडका पेडा बनता है । भुसका नहीं । तिस ही प्रकार उपयोगस्वरूप आत्मा. अपने उपयोग स्वभावको नहीं छोडता हुआ ज्ञानस्वरूप करके परिणमता रहता है.। छटी बात यह है कि एक पदार्थका दूसरे पदार्थोके स्वरूप करके तो परिणाम होता ही नहीं है । यदि तुम्हारे. कथन अनुसार निज आत्मक परिणामों करके भी पदार्थकी परिणतियां नहीं मानी जावेगी तो पदार्थ सभी परिणामोंसे रहित होता हुआ कूटस्थ अपरिणाम्री, हो जायगा । सर्वथा नित्य पदार्थके माननेपर क्रिया, कारक, प्रमाण, फल, आदि व्यवहारका लोप हो जायगा । यदि निज परिणामोंके सिवाय अन्य अर्थोके परिणाम करके विवक्षित पदार्थकी परिणति मानोगे तो सम्पूर्ण पदार्थोके स्वभावोंका संकर हो जायगा । जल अपने शीतद्रव्यपनेसे तो परिणति करेगा नहीं। ऐशी दशामें जलका ज्ञान, सुख, रूपसे परिणाम होना बन बैठेगा । आत्माके स्वभाव रूप, रस भी हो जायेंगे । कोई भी अपने